सोमवार, 18 दिसंबर 2023

गुमनामी के अँधेरे में से रा यात्री की यात्रा

साहित्यिक जगत में से रा यात्री के नाम से प्रसिद्ध सेवा राम अग्रवाल 17 नवंबर, 2023 को कभी न लौटने वाली महायात्रा पर प्रस्थान कर गए। उत्तर प्रदेश के जनपद मुज़फ़्फ़रनगर के गाँव जड़ोदा में 1933 में जन्मे सेवा राम की साहित्यिक यात्रा कविताओं के माध्यम से शुरू हुई थी। उसके बाद यह यात्रा तेज गति चलती रही। उनकी पहली कहानी है ‘गर्द गुबार’ जो प्रसिद्ध कहानी पत्रिका ‘नई कहानी’ में प्रकाशित हुई और पहला कहानी संग्रह है ‘दूसरे चहरे’ (1971)। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर में हुई। तत्पश्चात आगरा विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान (1955) और हिंदी साहित्य (1957) में एम.ए. की उपाधि अर्जित की। सागर विश्वविद्यालय से शोधकार्य संपन्न करके उन्होंने अपनी आजीविका अध्यापन से शुरू की।

से रा यात्री प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, पंत, बच्चन और नरेंद्र शर्मा जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से प्रभावित थे। वे बेहद संवेदनशील कथाकार थे। समसामयिक सामाजिक एवं राजनैतिक परिदृश्य को देखकर वे चिंता व्यक्त करते थे। उनका व्यक्तिव बहुत सरल था। उनकी सरलता एवं सादगी का एकमात्र कारण यह है कि वे जमीन से जुड़े साहित्यकार थे। कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य और संस्मरण विधाओं में उन्होंने अपनी लेखनी चलाई।

से रा यात्री सचमुच साहित्य के ‘सेरा’ (शेरा) थे। उनकी किताबों का संसार विशाल है। उनकी लेखनी से दराजों में बंद दस्तावेज, लौटते हुए, कई अँधेरों के पार, अपरिचित शेष, चाँदनी के आरपार, बीच की दरार, टूटते दायरे, चादर के बाहर, प्यासी नदी, भटका मेघ, आकाशचारी, आत्मदाह, बावजूद, अंतहीन, प्रथम परिचय, जली रस्सी, युद्ध अविराम, दिशाहारा, बेदखल अतीत, सुबह की तलाश, घर न घाट, आखिरी पड़ाव, एक जिंदगी और, अनदेखे पुल, कलंदर, सुरंग के बाहर जैसे उपन्यासों का सृजन हुआ। साथ ही केवल पिता, धरातल, अकर्मक क्रिया, टापू पर अकेले, दूसरे चेहरे, अलग-अलग अस्वीकार, काल विदूषक, सिलसिला, खंडित संवाद, नया संबंध, भूख तथा अन्य कहानियाँ, अभयदान, पुल टूटते हुए, विरोधी स्वर, खारिज और बेदखल, परजीवी जैसे कहानी संग्रहों में संकलित कहानियाँ पाठकों को सोचने पर बाध्य करती हैं। किस्सा एक खरगोश का, दुनिया मेरे आगे उनके प्रमुख व्यंग्य संग्रह हैं। लौटना एक वाकिफ उम्र का संस्मरण है। वे सफल संपादक भी थे। उन्होंने मासिक ‘वर्तमान साहित्य’ का सफल संपादन किया था। इतनी महत्वपूर्ण कृतियों से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के बावजूद यात्री जी कहते हैं कि ‘मैं मैं को नहीं लिख पाया। यहाँ आकर मेरी शक्ति खत्म हो गई। जहाँ मुझे स्वयं को लिखना था... ये जो मैंने सब लिखा है, ये तो दिशांतर है।’

से रा यात्री अनेक सम्मानों से सम्मानित हुए। जैसे राजस्थान पत्रिका, जयपुर द्वारा वर्ष 1998 में ‘विरोधी स्वर’ कहानी के लिए पुरस्कृत हुए। राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति, डूंगरगढ़, राजस्थान द्वारा 1993 में ‘साहित्यश्री’ सम्मान से अलंकृत हुए। सावित्री देवी चैरिटेबल ट्रस्ट, गाजियाबाद द्वारा 1986 में पुरस्कृत हुए। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा कथा संग्रह ‘धरातल’ (1979), ‘सिलसिला’ (1980), ‘अकर्मक क्रिया’ (1980), ‘अभयदान’ (1979) तथा संस्मरण ‘लौटना एक वाकिफ उम्र का’ (1998) के लिए पुरस्कृत हुए। यात्री जी 2006 में साहित्य भूषण, 2007 में समन्वय द्वारा सारस्वत सम्मान, 2011 में महात्मा गांधी साहित्य सम्मान तथा 2017 में पीटरबर्ग्स अमेरिका के सेतु शिखर सम्मान से भी अलंकृत हुए।

यात्री जी ने भले ही अपनी साहित्यिक यात्रा कविता से शुरू की, लेकिन बहुत जल्दी ही उसकी सीमा को देखते हुए उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। उसके बाद उपन्यास, संस्मरण आदि एक के बाद एक लिखते रहे। उनके कवि रूप को उनकी कहानियों और उपन्यासों में भी जीवित देखा जा सकता है। उन्होंने स्वयं इस बात की पुष्टि की है। यात्री जी का जीवन बहुत ही सरल और पारदर्शी रहा। उनके बाह्य व्यक्तित्व का रेखाचित्र रवींद्र कालिया ने कुछ इस तरह खींचा है – ‘ऊँचा कद, गोरा रंग, काले बाल, चोगे की तरह लंबा घुटनों से नीचे तक सफेद कुर्ता, ढीला पायजामा, कंधे पर समाजवादी झोला, पीछे-पीछे कुत्तों की लंबी कतार, गाजियाबाद की किसी सड़क पर लंबे-लंबे डग भरता हुआ ऐसा कोई आदमी दिखाई दे जाय तो समझ लेना लीजिए, वह कहानीकार से रा यात्री है।’ (रवींद्र कालिया, कॉमरेड मोनालिज़ा तथा अन्य संस्मरण, पृ. 178)। यात्री जी अपने झोले में रोटी के टुकड़े रखते और उन टुकड़ों को रास्ते में कुत्तों को खिलाते। यह उनकी आदत थी। इसीलिए उनके पीछे कुत्तों की लंबी कतार लगी रहती। रवींद्र कालिया उन्हें ‘एक खुली किताब’ मानते हैं। यात्री जी उन ‘अनसंग हीरोज़’ के समान हैं जिनके बारे में लोग बहुत ही कम चर्चा करते हैं। उन्होंने कभी भी यह नहीं चाहा कि लोग उनकी तारीफ के पुल बाँधें। उन्होंने तो मस्त कलंदर की तरह ज़िंदगी बिताई थी।

यात्री जी की रचनाओं में समाज के हर तबके के दर्द को देखा जा सकता है। बच्चों की मानसिकता से लेकर वार्धक्य तक की स्थितियों को यात्री जी ने बखूबी उकेरा है। ‘दराजों में बंद दस्तावेज’ उनका पहला उपन्यास है। इसमें नायक-नायिका के मानसिक द्वंद्व का चित्रण है। ‘लौटे हुए’ में जीवन मूल्यों का निरूपण है। ‘दरारों के बीच’ में बेरोजगारी का चित्रण है। ‘कई अँधेरों के पार’ में मध्यवर्गीय मानसिकता है। ‘आत्मदाह’ में युवा पीढ़ी की पलायन करने की प्रवृत्ति को उजागर किया गया है। ‘उखड़े हुए’ शीर्षक कहानी में शिक्षण संस्था की आड़ में चल रहे शोषण-चक्र का खुलासा किया गया है। ‘किस्सा कोताह’ कहानी में अध्यापकों के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के प्रति कटाक्ष है तो ‘उजरत’ कहानी विद्यार्थी जीवन का दस्तावेज है। ‘जोंक’ में संकीर्ण मानसिकता का चित्रण है। इस प्रकार हर रचना में एक नई समस्या को देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं के पात्र हमारे इर्द-गिर्द घूमने लगते हैं। कभी-कभी तो हम स्वयं एक पात्र बनकर उपस्थित हो जाते हैं।

आज के रचनाकारों के संदर्भ में से रा यात्री का कहना है कि ‘...जोखिम नहीं है। लेखन के लिए एक प्रतिबद्धता होती है, कमिटमेंट होता है। विद आउट कमिटमेंट आप हैं कहाँ? ढोल है…। आज सबसे बड़ी कमी लेखन में कमिटमेंट की है। मैं जोखिम उठाता हूँ और अपने लेखन में रेखांकित करता हूँ।  सारे आजादी के जमाने की जो जद्दोजहद स्टैंड करती है… व्हाई गांधी स्टुड… गांधी क्यों खड़े रहे गए? गांधी इसलिए खड़े रह गए कि उनका शायद मंत्र था। आज कोई मंत्र नहीं है।’

आज संवेदनशून्यता हर दिशा में फैली हुई है। अपने काम के प्रति कमिटमेंट तो है ही नहीं। एक साक्षात्कार में जब उनसे यह पूछा गया कि क्या कोई और आप के बारे में उस तरह लिख सकते हैं जिस तरह आप चाहते हों तो उन्होंने कहा कि ‘मुझ पर 35 लोगों ने पीएचडी की है, लेकिन सब खोखलापन है। ‘उजरत’ कहानी का किसी ने कोई जिक्र नहीं किया। 35 स्कॉलर्स में से... एक ने भी जिक्र नहीं किया ‘उजरत’ का।’ ‘उजरत’ कहानी विद्यार्थी जीवन का जीवंत दस्तावेज है। ‘कितने बचने की कोशिश है, कितना सामने आने का जज्बा है, दोनों चीजें हैं इस कहानी में।’ उनकी बातों में एक संदेश और उनकी चिंता स्पष्ट रूप से मुखरित है। वह यह है कि आज के शोधार्थी महज उपाधि पाने के लिए काम कर रहे हैं, न कि कमिटमेंट से। फिर ऐसी उपाधि किस काम की! एक अलंकरण मात्र!!

आज की पीढ़ी को संदेश देते हुए यात्री जी कहते हैं कि ‘खूब पढ़ना चाहिए। क्लासिक पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए। रेणु को पढ़ना चाहिए। हिमांशु श्रीवास्तव को पढ़ना चाहिए। दिनकर की कविता पढ़नी चाहिए। 34 साल की उम्र में मेरी पहली कहानी छपी ‘धर्मयुग’ में। आज 34 साल की उम्र में 34 किताबें छप जाती हैं।’ हममें ऐसे कितने लोग हैं जो इन रचनाकारों को पूरा पढ़ पाए! पढ़ने का अर्थ यह नहीं कि किताबों के पन्नों को पढ़ लिया। यहाँ पढ़ने का अर्थ है उन किताबों में निहित संवेदनशील तत्वों को ग्रहण करना और अपने जीवन में उतारना। हम ऐसा नहीं करते। ऐसा करने के लिए समय किसके पास है! भागदौड़ की जिंदगी में हम अपने आपसे कटते जा रहे हैं।

सामाजिक विसंगतियों से विचलित यात्री जी हमेशा बेचैन रहे। अपने अंतिम दिनों में भी उनके अंदर यही बेचैनी थी, यही चिंता थी। 16 नवंबर, 2023 को से रा यात्री को अपनी सृजन यात्रा के लिए ‘दीपशिखा’ सम्मान से अलंकृत करने की घोषणा हुई। इस घोषणा के 24 घंटे में ही यात्री जी ‘कई अँधेरों के पार’ ‘गुमनामी के अँधेरे में’ ‘आखिरी पड़ाव’ पर पहुँचकर कभी वापस न लौटने की यात्रा पर निकल पड़े। जन सरोकारों के इस अप्रतिम यात्री को ‘स्रवंति’ की विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है! 

बुधवार, 6 दिसंबर 2023

'स्पैरो' की उड़ान का सम्मान

साहित्यिक क्षेत्र में अंबै के नाम से प्रसिद्ध तमिलनाडु की लेखिका सी. एस. लक्ष्मी (1944) को 2023 के “टाटा लिटरेचर लाइव! लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” से सम्मानित किया गया है। लक्ष्मी का जन्म कोयंबत्तूर में हुआ था। उनका अधिकांश समय मुंबई और बैंगलूर में बीता। उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से स्नातक की उपाधि अर्जित की। 1956 की असफल क्रांति के कारण हंगरी से पलायन कर रहे शरणार्थियों के प्रति अमेरिकी नीति पर उन्होंने अपना शोधप्रबंध प्रस्तुत किया और नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने अपना अकादमिक जीवन एक शिक्षक के रूप में शुरू किया। उन्होंने मुंबई में स्त्रियों के लिए “स्पैरो” नाम से एक संस्था की स्थापना की। स्पैरो (SPARROW - Sound Picture ARchives of Research on Women) की स्थापना का विचार उन्हें 1988 में आया। इसके पीछे स्त्रियों के लिए एक अलग अभिलेखागार स्थापित करना ही मुख्य उद्देश्य रहा। इसकी आवश्यकता उनके शोध अध्ययन के दौरान उभरी। उनका उद्देश्य महिला अभिलेखागार को मात्र एक संग्रह के रूप में स्थापित करना नहीं था, बल्कि एक ऐसा अभिलेखागार बनाने का था जो स्त्रियों की समस्याओं को दूर करने में सहायक हो। वर्तमान में आप ही इस संस्था की निदेशक हैं।

अंबै बहिर्मुखी व्यक्तित्व की धनी रचनाकार हैं। समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं विद्रूपताओं के प्रति उन्होंने हमेशा आवाज उठाई। मूलतः स्त्री के अधिकारों के लिए। इसके लिए उन्होंने साहित्य को माध्यम बनाया। अंबै से परिचित लोगों का कहना है कि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं दीखता। उनकी अधिकांश रचनाओं में स्त्री विषयक मान्यताओं तथा उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए व्यक्तित्व को देखा जा सकता है। उनकी कहानियाँ रिश्तों को उजागर करती हैं। अंबै समकालीन जीवन के बारे में तीखी टिप्पणियाँ करने से भी पीछे नहीं हटती। वह विकट परिस्थितियों में कभी भी हार नहीं मानती।

सी. एस. लक्ष्मी ने 16 वर्ष की उम्र से ही कहानियों के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करना शुरू कर दिया था। 1962 में उनकी पहली कृति ‘नंदिमलै चारलिले’ (नंदी पर्वतों के समीप) प्रकाशित हुई। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - 'अंधि मलय’ (गोधूलि बेला), ‘सिरगुगल मुरियुम’ (पंख टूट जाते हैं), ‘वीट्टिन मूलयिल ओरु समयिलअरै’ (घर के कोने में एक रसोईघर), ‘काट्टिल ओरु मान’ (जंगल में एक हिरण) आदि। उनकी अधिकांश कृतियाँ अंग्रेजी में अनूदित हो चुकी हैं और वे खुद भी अंग्रेजी में लिखती हैं। उन्होंने अनेक नाटकों का भी सृजन किया है। वे सफल अनुवादक भी हैं। हिंदी और अंग्रेजी से तमिल में कविताओं का अनुवाद करती हैं, साथ ही तमिल से अंग्रेजी में।

अंबै की कहानियों का मूल स्वर स्त्री अस्मिता है। अपनी मातृभाषा तमिल में वे अंबै के नाम से लिखती हैं, जबकि अंग्रेजी में लक्ष्मी के नाम से। इसके संबंध में एक साक्षात्कार में उन्होंने स्पष्ट किया कि सृजनात्मक लेखन के लिए विशेष रूप से अपनी मातृभाषा में वे अंबै नाम का प्रयोग करना ही पसंद करती हैं। तमिल में अंबै का अर्थ है देवी अर्थात पार्वती। अपनी युवावस्था में वे तमिल लेखक देवन से अत्यधिक प्रभावित थी। उनकी कृति ‘पार्वतियिन सबदम’ (पार्वती की शपथ) को पढ़कर वे सोचने को मजबूर हो गईं। उस कृति की मूल कथा एक स्त्री के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें यह बखूबी दिखाया गया है कि अपने पति द्वारा अपमानित स्त्री शपथ लेती है कि वह अपनी अस्मिता के लिए दुनिया से लड़ेगी। वह अपने अस्तित्व के संघर्ष में सफलता हासिल करती है। इससे प्रेरित होकर लक्ष्मी ने ‘अंबै’ नाम से सृजनात्मक लेखन शुरू किया था।

पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के लिए आगे बढ़ना, अपने अस्तित्व को बचाए रखना इतना आसान नहीं है। सदियों से स्त्री को यह कहकर हाशिये पर धकेला गया कि ‘न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।’ हर क्षेत्र में उसे पीछे ही रहना पड़ता है। यदि स्त्री घर की दहलीज लाँघकर समाज में कुछ बनने की इच्छा से किसी क्षेत्र में आगे आती है, तो उसे यह समाज जीने नहीं देता। तरह-तरह के नाम से भी उसे संबोधित किया जाता है। पुरुष तो उसे हर कदम पर टोकने के लिए तैयार रहता है। इतना ही नहीं पुरुष-मानसिकता से ग्रस्त स्त्रियाँ भी स्त्री की दुश्मन बन बैठती हैं। लक्ष्मी ने भी बहुत कुछ झेला है। उन्हें और उनके लेखन को धिक्कारने वालों की कमी नहीं है। इसकी पुष्टि करते हुए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि उनके चरित्र पर भी तरह-तरह के लांछन लगाए गए थे। कुछ पुरुष लेखकों ने उनकी तथा उनकी रचनाओं की भर्त्सना की थी। उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया थ। वे एकदम अकेली पड़ गई थीं। फिर भी उन्होंने परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके। सभी तरह की आलोचनाओं का अंबै ने डटकर सामना किया। इसके लिए उन्होंने लेखनी को हथियार बनाया।

अंबै के स्त्री पात्र हाड़-मांस से बने हैं और अपनी सभी इच्छाओं और कल्पनाओं को बिना किसी हिचकिचाहट के व्यक्त करते हैं। ‘सिरागुगल मुरियुम’ (पंख टूट जाते हैं) कहानी संग्रह की केंद्रीय कहानी में लेखिका ने बेमेल रिश्तों का खुलासा किया है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि जब पति का साथ न मिले तो उस पत्नी की जिंदगी नारकीय बन जाएगी। कहानी की केंद्रीय पात्र ऐसी परिस्थितियों में भी साहस के साथ आगे बढ़ती है।

‘वीट्टिन मूलयिल ओरु समयिलअरै’ (घर के कोने में एक रसोईघर) में कुल मिलाकर 20 कहानियाँ संकलित हैं। ये कहानियाँ सांस्कृतिक संदर्भों से युक्त हैं। प्रत्येक कहानी का एक अलग अहसास है। इन कहानियों के माध्यम से हम उस स्त्री की दयनीय स्थिति को समझ सकते हैं जो पारंपरिक रूढ़ियों के कारण पिसती है तथा घर और समाज में अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए संघर्ष करती है। अकसर यही सुनने को मिलता है कि स्त्री का साम्राज्य रसोईघर है। वह रसोईघर से कदम आगे नहीं रख सकती। यदि वह घर के निर्णयों में कुछ सलाह देने के लिए आगे आई, तो उसे चुप करा दिया जाता है यह कहकर कि- जा! रसोई का काम देख पहले। बड़ी आई पुरुष को सलाह देने वाली! रीति-रिवाजों के आगे स्त्री भी इतना दब जाती है कि वह भी अपने आपको रसोईघर तक सीमित कर लेती है। लेखिका यह टिप्पणी करती हैं कि जब तक स्त्री अपने लिए अपने अस्तित्व व अस्मिता के लिए स्वयं संघर्ष नहीं करेगी, तब तक कुछ नहीं हो सकता। उसे स्वयं ऊपर उठना होगा। उसकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आएगा।

सी. एस. लक्ष्मी ‘अंबै’ एक सशक्त स्त्रीवादी लेखिका हैं। वे कोरी नारेबाजी करने वाली लेखिका नहीं हैं, अपितु ज़मीनी सच्चाई को पाठकों के सामने रखकर स्त्री की समस्याओं के निदान के लिए काम करने वाली सक्रिय कार्यकर्ता हैं। “टाटा लिटरेचर लाइव! लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” से सम्मानित होने के अवसर पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि यह सम्मान पाकर वे अत्यंत गौरव का अनुभव कर रही हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह सम्मान एक स्त्रीवादी रचनाकार का सम्मान नहीं है, अपितु यह साहित्य का सम्मान है। यह एक साहित्यकार का सम्मान है। साहित्य रचनेवाला सिर्फ साहित्यकार अथवा रचनाकार होता है, न कि स्त्रीवादी या पुरुषवादी।

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सरलता का अपनापन!


छायावाद के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी, 1889 - 15 नवंबर, 1937) कवि के साथ-साथ नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार, निबंध लेखक तथा संपादक थे। रामविलास शर्मा के अनुसार वे छायावाद के पहले कवि हैं। प्रसाद एक ऐसे साहित्यकार हैं जो अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए साध्य को ही मुख्य मानते हैं। यही बात उन्होंने ‘चंद्रगुप्त’ नाटक में चाणक्य के मुख से कहलवाई है। प्रसाद ने जहाँ एक ओर गंभीर ऐतिहासिक साहित्य का सृजन किया है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति, देशप्रेम आदि का चित्रण बखूबी किया है। उनकी कहानियों में साहस-युक्त बाल चरित्र को भी देखा जा सकता है।

हर मनुष्य को बचपन की स्मृतियाँ आह्लादित करती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से बात करें तो जन्म से लेकर किशोरावस्था तक का समय बचपन कहलाता है। सामान्य रूप से कहें तो यह वह समय है जब मनुष्य बिना किसी भेद-भाव के, बिना किसी राग-द्वेष के हँसी-खुशी समय व्यतीत करता है। यह वह सुनहरा समय है जो जिंदगी को तनाव-मुक्त रखता है। इस अवस्था में न तो तनाव के बारे में पता रहता है और न ही सामाजिक विसंगतियों का ज्ञान रहता है। यदि कुछ होता है तो वह है सिर्फ और सिर्फ अल्हड़ खेल। उसी में नन्हे बच्चे भाव विभोर होकर नाचते हैं, गाते हैं, किलकते हैं, खिलखिलाते हैं। अपने चारों ओर खुशियों की सुगंध फैलाते हैं। यदि कहें कि बचपन सबसे मधुर और अविस्मरणीय क्षणों का पुंज है, तो गलत नहीं होगा। इसीलिए शायद जयशंकर प्रसाद भी कह गए - ‘तुम्हारी आँखों का बचपन!/ खेलता था जब अल्हड़ खेल,/ अजिर के उर में भरा कुलेल,/ हारता था हँस-हँस कर मन,/ आह रे वह व्यतीत जीवन!/ तुम्हारी आँखों का बचपन!/ साथ ले सहचर सरस वसंत,/ चंक्रमण करता मधुर दिगंत,/ गूँजता किलकारी निस्वन, पुलक उठता तब मलय-पवन/ तुम्हारी आँखों का बचपन!’ क्या आज भी ऐसा बचपन बचा हुआ है! यह तो सोचने की बात है। ‘आज भी है क्या नित्य किशोर-/ उसी क्रीड़ा में भाव विभोर-/ सरलता का वह अपनापन-/ आज भी है क्या मेरा धन!/ तुम्हारी आँखों का बचपन!’

सांसारिक दाव-पेंच के दबाव के कारण आज असमय ही बालकों का बचपन छिनता जा रहा है। बहुत बार परिस्थितियों के कारण किसी नन्ही सी जान को परिवार की जिम्मेदारी तक अपने कंधों पर उठानी पड़ जाती है। इस विसंगति को अपने समय में जयशंकर प्रसाद ने भी महसूस किया था। उनकी कहानी ‘छोटा जादूगर’ में यह दिखाया गया है कि एक छोटा सा बच्चा कितना हिम्मती है। वह परिस्थितियों का सामना साहस के साथ करता है। एक राहगीर से मेले में उसकी मुलाकात होती है। जब वह व्यक्ति उस छोटे से बच्चे के माता-पिता के बारे में पूछता है, तो वह कहता है कि ‘बाबूजी जेल में हैं’ देश के लिए और माँ बीमार। पिता के जेल जाने के बावजूद वह टूटता नहीं और अपनी बीमार माँ का भी ध्यान रखता है। जब वह राहगीर कहता है कि ऐसी परिस्थिति में वह तमाशा देख रहा है, तो वह झट से कहता है, ‘तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शर्बत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती!’ (जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली, भाग iv, पृ. 264)। ऐसा कह पाना सबके लिए आसान नहीं। यह वही बहादुर बच्चा कह सकता है जिसने जिंदगी के खट्टे-मीठे लम्हों को जिया हो।

आजकल परिस्थितियों के कारण बच्चे जल्दी ही चतुर और सांसारिक बनते जा रहे हैं। सोशल मीडिया के कारण बच्चों का बचपन गुम होता जा रहा है। मासूमियत कोसों दूर है। प्रसाद जी के ज़माने में सोशल मीडिया तो न था, लेकिन राष्ट्र और समाज की परिस्थितियाँ अति विषम थीं। इसीलिए उन्होंने लिखा, ‘बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।’ (वही)। छोटा जादूगर छोटी उम्र में बीमार माँ के इलाज के लिए रास्ते में लोगों को जादू दिखाकर पैसा कमाने का काम करता है। जब उसकी माँ अंतिम साँसें ले रही होती है, तब भी वह जादू दिखाने चल पड़ता है। यह अंश पढ़ते समय पाठक द्रवित हुए बिना नहीं रह सकते।

‘छोटा जादूगर’ कहानी पढ़ते समय मानो ऐसा लगता है कि जयशंकर प्रसाद स्वयं पात्र बनकर उपस्थित हैं जो बाल मन को समझने का प्रयास कर रहे हैं। मेले में जब बच्चा जाता है, तो वहाँ चीजों को देखकर उसका मन ललचाता है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन मेले में जाने के बावजूद बच्चा खिलौने या फिर मिठाइयों को खरीदने के बजाय, तमाशा देखने के बजाय घर-परिवार के बारे में, घर की जरूरतों के बारे में सोचता हो, तो तनिक रुक कर सोचना पड़ेगा। ‘छोटा जादूगर’ कहानी के बाल पात्र को भी मेले की चीजें अच्छी लगती हैं। वह कहता है - ‘मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नंबर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।’ (वही, पृ. 266)। यह सब उस बच्चे ने बड़े गर्व और आत्मविश्वास के साथ कहा। जब वह बोल रहा था तब उसकी वाणी में कहीं भी रुकावट नहीं थी। यह उसके आत्मविश्वास का प्रतीक है। यह मातृ-प्रेम को दर्शाने वाली अद्वितीय कहानी है। इस कहानी में जयशंकर प्रसाद ने परोक्ष रूप से स्वाधीनता संग्राम में जेल जाने वाले एक पात्र का उल्लेख किया है।

बच्चे मन के सच्चे होते हैं। छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाते हैं। उसी तरह छोटी सी बात पर दुखी भी हो जाते हैं, रूठते भी हैं, हंगामा भी करते हैं। कहने का अर्थ है कि बच्चे किसी एक मनोदशा में ज़्यादा देर तक नहीं टिकते। एक ही क्षण में उनकी इच्छाएँ बदल जाती हैं। बच्चे आसानी से किसी की ओर आकर्षित हो जाते हैं। उनके मन में अपार दया का भाव रहता है। कहा जाता है कि उनमें भगवान वास करते हैं। ‘गूदड़ साईं’ शीर्षक कहानी में प्रसाद जी ने साईं के माध्यम से यह कहा कि ‘मेरे पास, दूसरी कौन वस्तु है, जिसे देकर इस ‘रामरूप’ भगवान को प्रसन्न करता!’ (जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ, पृ.16)। इस कहानी का नन्हा मोहन साईं को ‘गरीब और भिखमंगा जानकर माँ से अभिमान करके पिता की नजर बचाकर कुछ साग-रोटी लाकर दे देता, तब उस साईं के मुख पर पवित्र मैत्री के भावों का साम्राज्य हो जाता।’ (वही)।

जयशंकर प्रसाद मनुष्यता को प्रमुखता देने वाले साहित्यकार हैं। उनके समग्र साहित्य में इस तत्व को रेखांकित किया जा सकता है। उनके अनुसार जीवन की मुख्य संवेदनाएँ हैं मानवता और करुणा। ‘अनबोला’ एक ऐसी कहानी है जिसमें प्रसाद जी ने इन मानवीय संवेदनाओं को उकेरा है। इस कहानी में जग्गैय्या का मातृ-प्रेम दिखाया गया है। जग्गैय्या एक छोटा सा बालक है। पिता का साया बचपन में उठ गया था। उसके सिर पर तो सिर्फ ममतामयी माँ का हाथ था। “जग्गैय्या को केवल माँ थी, वह कामैया के पिता के यहाँ लगी-लिपटी रहती, अपना पेट पालती थी। कामैया की मछलियाँ ले जाकर बाजार में बेचना उसी का काम था।’ (जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली, भाग iv, पृ.312)। एक दिन जाल में मछलियों के साथ-साथ समुद्री बाघ भी आ गया। ‘जग्गैय्या की माँ अपना काम करने की धुन में जाल में मछलियाँ पकड़कर दौरी में रख रही थी। समुद्री बाघ बालू की विस्तृत बेला में एक बार उछला। जग्गैय्या की माता का हाथ उसके मुँह में चला गया। कोलाहल मचा; पर बेकार! बेचारी का एक हाथ वह चबा गया।’ (वही, पृ.313)। जग्गैय्या अपनी मूर्च्छित माँ को उठाकर झोंपड़ी में ले चलता है। उसके मन में कामैया के पिता के लिए असीम क्रोध भर जाता है। अपनी माँ को कष्ट में देखकर वह सोचने लगता कि यदि उसके पास खुद की नाव होती तो माँ को आज यह दिन देखना न पड़ता। वह चाहते हुए भी अपनी माँ को बचा नहीं पाता। छोटी उम्र में ही माता-पिता की छाया से वंचित न जाने कितने जग्गैय्या जीवन-संघर्ष में अग्रसर हैं! ऐसी स्थिति में अपने जीवन यापन के लिए उन्हें काम करना ही पड़ता है। सेठ-साहूकार काम तो करवा लेते हैं, लेकिन पगार तो उन्हें नाममात्र के लिए ही देते हैं। बालश्रम कानूनन अपराध है, पर वे बच्चे कर ही क्या सकते हैं! प्रसाद की कहानी का मधुआ एक ऐसा ही पात्र है जो ‘कुँअर साहब का ओवरकोट लिए खेल में दिनभर साथ रहा। सात बजे लौटा तो और भी नई भजे तक कुछ काम करना पड़ा।’ (जयशंकर प्रसाद, प्रतिनिधि कहानियाँ, पृ. 91)। रोटी के बदले उसे लातें खाने को मिलीं। प्रसाद ने इस कहानी में यह दर्शाया है कि बालक मधुआ की ममता और निरीहता एक शराबी के भीतर क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है।

जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘बालक चंद्रगुप्त’ एक छोटी सी ऐतिहासिक कहानी है। इस कहानी में उन्होंने रोचक ढंग से इतिहास के नायक चंद्रगुप्त के बचपन की झाँकी प्रस्तुत की है। बचपन में चंद्रगुप्त राजसी वैभव का अभिनय करता है। उस समय उसकी मुलाकात चाणक्य से होती है। भले ही यह दृश्य नाटकीय है, पर बहुत प्रभावी है। प्रसाद के बाल चरित्रों में जहाँ एक ओर प्रेम, करुणा, दया जैसी संवेदनाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें मातृप्रेम के साथ-साथ देशप्रेम जैसे राष्ट्रीय मूल्य भी निहित हैं।

गुरुवार, 14 सितंबर 2023

देश को सिलने के लिए चाहिए एक सुई



सितंबर! हिंदी प्रेमियों के लिए उत्सव का माहौल। पाठशालाओं, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, स्वैच्छिक संस्थानों, बैंकों, राजभाषा विभागों आदि में चारों ओर कोलाहल। न जाने कितनी तरह की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। अवसर है ‘हिंदी दिवस’। आखिर हिंदी दिवस को इतना महत्व क्यों दिया जाता है! कभी सोचा है।

14 सितंबर, 1949 को हिंदी ने भारत की राजभाषा का पद संवैधानिक रूप से प्राप्त किया। पहली बार 14 सितंबर, 1953 को ‘हिंदी दिवस’ मनाया गया। तब से लेकर आज तक यह एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। भारत एक उत्सवधर्मी देश है। हर महीने कोई न कोई त्योहार होता ही है। छोटी-छोटी उपलब्धियों को भी उत्सव के रूप में मनाकर भारत के लोग आपस में भाईचारा कायम रखते हैं। ऐसे ही सितंबर में सभी हिंदी प्रेमी ‘हिंदी दिवस’ मनाने के लिए एकजुट हो जाते हैं।

हिंदी दिवस क्यों मनाते हैं, इसके पीछे निहित कारण हम सब जानते ही हैं। मैं तो बस यही कहना चाहूँगी कि इसे केवल एक औपचारिकता न समझा जाए। वैसे भी, हम दूसरे तमाम त्योहार क्यों मनाते हैं? क्योंकि हमारे हर त्योहार के पीछे कोई न कोई मूल्य अवश्य जुड़ा हुआ होता है। चाहे वह दीवाली हो या दशहरा, ईद हो या होली, बैसाखी हो या बड़ा दिन, ये त्योहार हमारे लिए केवल औपचारिक नहीं हैं। इनका संबंध हमारे जीवन मूल्यों से है। 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्तूबर की तरह 14 सितंबर भी हमारा राष्ट्रीय पर्व है। और इस पर्व के मूल में जो मूल्य निहित है वह है ‘भारतीयता’ – ‘राष्ट्रीयता’। भारतवर्ष की भावात्मक एकता। हमारा यह देश बहु-सांस्कृतिक और बहु-भाषिक है। हिंदी भारत की सामासिक एकता को अक्षुण्ण रखने का एक आधार है।

भौगोलिक रूप से हमारे बीच दूरियाँ बहुत हैं। लेकिन भावात्मक एकता के धरातल पर हम सब एक हैं। कहने का आशय है कि उत्तर के राज्यों और दक्षिण के राज्यों के बीच भौगोलिक दूर हो सकती है और है भी। इन भौगोलिक दूरियों के बावजूद यह पूरा देश भावात्मक रूप से एक सूत्र में जुड़ा हुआ है। इस भावात्मक एकता को मजबूत बनाने वाला तत्व है ‘भाषा’।

हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया और अंग्रेजों की दासता से भारत को मुक्त किया। विभिन्न भाषाएँ बोलने वाला और विभिन्न प्रांतों में बँटा हुआ भारत एक राष्ट्र बना और हिंदी इसकी राजभाषा बनी। उल्लेखनीय है कि भाषा के अभाव में न ही मनुष्य का अस्तित्व होता है और न ही देश का। इस संदर्भ में थोमस डेविड का कथन ध्यान खींचता है। उनका कहना है कि कोई भी देश राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र नहीं कहला सकता।

भाषा महज आदान-प्रदान या अभिव्यक्ति का साधन नहीं है अपितु वह मनुष्य की अस्मिता है। हिंदी एक ऐसी भाषा है जो एक साथ अनेक भूमिकाएँ निभा सकती है और निभा भी रही है। अर्थात जनभाषा, संपर्क भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, शिक्षा की माध्यम भाषा, प्रौद्योगिकी की भाषा, बाजार-दोस्त भाषा, मीडिया भाषा आदि। साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में हिंदी की भूमिका निर्विवाद है। महात्मा गांधी ने हिंदी की इस ताकत को पहचाना और ‘स्वभाषा’ को स्वराज्य के लिए अनिवार्य घोषित किया। उनकी यह मान्यता थी कि हिंदुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी ही हो सकती है। क्योंकि अलग-अलग भाषा-भाषी भी हिंदी में आसानी से बातचीत कर सकते हैं। अपने भावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं।

भाषा एक संवेदनशील वस्तु है। जरा सी गलती हो जाए, तो वह तोड़ने वाली शक्ति बन सकती है। आप जानते ही हैं, भाषा के नाम पर आपस में झगड़े होने से देश किस तरह टुकड़ों में बँट जाते हैं। इसीलिए कभी कभी ऐसा भी लगता है कि भाषा के नाम पर राज्य बनना भाषा की नकारात्मक भूमिका है। किंतु इसके विपरीत भाषा की एक सकारात्मक भूमिका भी है। वह है जोड़ने की ताकत। हम सबको नकारात्मकता को छोड़कर इसी सकारात्मक तत्व को ग्रहण करना होगा। यह उचित भी है। अतः कहा जा सकता है कि ‘हिंदी दिवस’ भाषा के संबंध में सकारात्मक सोच के प्रति अपने आपको समर्पित करने का दिन है।

14 सितंबर, 1949 को जब भारतीय संविधान के निर्माताओं ने हिंदी को ‘भारत संघ की राजभाषा’ बनाया, तो वे इसे केवल ‘राजकाज’ की भाषा नहीं बना रहे थे, बल्कि भावात्मक एकता की भाषा बना रहे थे। इसीलिए उन्होंने दो और विशेष प्रावधान रखे। एक प्रावधान यह रखा कि अलग-अलग प्रांत अपनी-अपनी राजभाषाएँ रखने के लिए स्वतंत्र हैं। दूसरे, इन अलग-अलग राजभाषाओं को भावात्मक एकता की दृष्टि से जोड़ने के लिए अनुच्छेद 351 का प्रावधान किया गया। यह कहा गया कि हिंदी का विकास इस तरह से हो कि वह सामासिक संस्कृति (मिश्रित संस्कृति) का प्रतिबिंब बने। अतः हम सबको यह समझना जरूरी है कि हिंदी केवल राजभाषा नहीं है, बल्कि अलग-अलग भाषा और बोलियाँ बोलने वाले इस महान देश के लोगों को आपस में जोड़ने वाली एक सुई है। यहाँ मुझे तेलुगु कवयित्री एन. अरुणा की एक कविता याद आ रही है –

इंसानों को जोड़कर सी लेना चाहती हूँ
फटे भूखंडों पर
पैबंद लगाना चाहती हूँ
रफ़ू करना चाहती हूँ
चीथड़ों में फिरने वाले लोगों के लिए
हर चबूतरे पर
सिलाई मशीन बनना चाहती हूँ
असल में यह सुई
मेरी माँ की है विरासत
आत्मीयताओं के टुकड़ों से मिली
कंथा है हमारा घर
सीने का मतलब ही है जोड़ना
सीने का मतलब ही होता है बनाए रखना
माँ अपनी नजरों से बाँधती थी
हम सबको एक ही सूत्र में
सुई की नोक चुभाकर
होती थी कशीदाकारी भलाई के ही लिए
नस्ल, देश और भाषाओं में विभक्त
इस दुनिया को
कमरे के बीचों-बीच ढेर लगाकर
प्रेम के धागे से सी लेना चाहती हूँ (एन. अरुणा, मौन भी बोलता है)

सुई की तरह ही हिंदी भाषा किसी और भाषा की पहचान के लिए खतरा पैदा नहीं कर सकती। बल्कि यह उन सबको आपस में जोड़ती है। क्या आप बता सकते हैं कि घड़ी, गाड़ी, टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल, उपग्रह आदि चीजों को कैसे बनाया जाता है? जी हाँ, टुकड़ों में। टुकड़ों को असेम्बल करके जोड़ा जाता है। तभी उत्पाद तैयार होकर हमारे सामने आएगा। कहने का आशय है कि अलग-अलग टुकड़ों को असेम्बल करते हुए किसी भी उपकरण का निर्माण किया जाता है। अगर इन टुकड़ों को अलग-अलग ही रहने देंगे तो क्या उपकरण बनेगा! नहीं। इसी प्रकार राष्ट्र के निर्माण में वह जो प्राण तत्व है, आत्मा है जो दिखाई नहीं देती, वह है हमारी संपर्क भाषा। इस संपर्क भाषा के द्वारा ही सारी भाषाएँ जुड़कर ‘भारतीय चिंतन की भाषा’ का निर्माण करती हैं। इसी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। अतः हम सब मिलकर यह संकल्प लें कि असेम्बल करने वाले इस तत्व को कभी भी खत्म नहीं होने देंगे। हिंदी भाषा की सीमेंटिंग पावर को पहचानकर उसके साथ जुड़ेंगे।

हिंदी के वैश्विक विस्तार हेतु विचारणीय बिंदुओं के संबंध में आज सोशल मीडिया के माध्यम से काफी कुछ कहा जा रहा है। वहाँ 'वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ (हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार का मंच) एक ऐसा सक्रिय मंच है जिसके माध्यम से आम जनता हिंदी भाषा के संबंध में अपने विचार व्यक्त कर पा रही है। हिंदी दिवस के हवाले से यहाँ विभिन्न लोगों द्वारा सुझाए गए कुछ बिंदु पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत हैं –

• अनेक कंप्यूटर-साधित सॉफ्टवेयर बनाए जाएँ जिससे हिंदी का प्रचलन और भी आसान हो सके।

• विभिन्न संगठनों द्वारा विकसित भाषा-उपकरण न सिर्फ सरकारी दफ्तरों तक सीमित हों अपितु उन्हें जन-मानस के लिए सुलभ कराया जाए।

• हिंदी सिर्फ एक सरकारी भाषा बनकर न रह जाए अपितु लोग उसे सहर्ष स्वीकारें। हिंदीतर भाषियों को इस प्रकार प्रेरित करना चाहिए कि वे हिंदी को सहर्ष ही अपने आप स्वीकारें।

• इंडिया हटाओ ‘भारत’ बनाओ।

• भारत सरकार के सभी कार्यालयों, मंत्रालयों, विभागों आदि का कामकाज प्रथम राजभाषा हिंदी में नोट शीट से लेकर सभी विधेयक तक बिना विलंब प्रारंभ कर दिया जाय।

• न्याय के क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय तक अपील तथा बहस की सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध करा दी जाए।

• सभी कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बिना विलंब बनाने का समय आ गया है।

• देश में देवनागरी लिपि के लिए अंग्रेजी भाषा की लिपि का उपयोग तेज़ी से बढ़ाया जा रहा है। यह हिंदी की लिपि देवनागरी के अस्तित्व पर संकट पैदा कर रहा है। इसे हतोत्साहित करना चाहिए।

अंततः इतना ही कि अब समय आ गया है कि हिंदी को उसका सही सम्मानपूर्ण वैश्विक स्थान प्रदान कराने के लिए सभी भारतवासियों को नवीनतम भाषा प्रौद्योगिकी से सुसज्जित होकर भाषाभिमान का परिचय देना चाहिए।