गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

'आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे'


"कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे,
हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे."

- -अशफ़ाक उल्ला खाँ

भारत की आज़ादी का इतिहास अविस्मरणीय घटनाओं से भरा पड़ा है. लाखों - करोड़ों देशप्रेमियों ने जिस बहादुरी और साहस के साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष किया और जिस बलिदान एवं त्याग का परिचय दिया, वह अनुपमेय है. प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था -
" वर्षों पहले हमने भाग्यवधू से एक प्रतिज्ञा की थी. आज वह क्षण आ गया है जब हम उस प्रतिज्ञा को समग्र रूप में न सही , बहुत हद तक पूरा करेंगे."

स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में 19 वीं सदी पुनर्जागरण का काल था. इसी काल में राष्ट्रीय चेतना मानवीय जिजीविषा के लिए चुनौती बनकर सामने आई, नए मूल्यों की स्थापना हुई. भारतीय साहित्य में निरंतर इन मूल्यों एवं आदर्शों का सशक्त रूप मुखरित होता रहा है.

हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय संघर्ष की विविध घटनाओं का चित्रण सहज एवं स्वाभाविक है. ब्रिटिश शासन काल में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति पर अंकुश था लेकिन साहित्यकारों ने जनमानस में राष्ट्रीय चेतना जगाई.

राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम बापू के नेतृत्व में चरम सीमा पर पहुँचा. शांति और क्रांति दोनों के समर्थक आंदोलनों ने ब्रिटिश शासन पर प्रहार किए. साहित्यकारों ने भी अपना दायित्व निभाते हुए तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक घटनाओं को रूपायित किया. उसकी समृति बाद की रचनाओं में भी अंकित हुए. उदाहरण के लिए ‘मैला आंचल ’ (1954) का एक सत्याग्रही अपने साथियों को संबोधित करते हुए कहता है -
"पियारे भाइयो, हमने भारथमाता का नाम, महतमा जी का नाम लेना बंद नहीं किया. तब मलेट्री ने हमको जेलखाना में डाल दिया. आप लोग तो जानते ही हैं कि सुराज लोग जेहल को क्या समझते हैं - ‘जेहल नहीं ससुराल यार हम बिहा करने को जाएँगे’." (मैला आंचल ; पृ.30)

1947 में भारत को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति तो मिली लेकिन द्विराष्ट्रवाद के कारण देश का विभाजन हुआ और भारत को सांप्रदायिकता की ज्वाला में दग्ध होना पड़ा. इस प्रकार आज संपूर्ण देश में फैली सांप्रदायिकता का बीज स्वतंत्रता पूर्व ही अंकुरित हो गया था. दूसरी ओर ‘मैला आंचल ’ में रेणु ने सांप्रदायिक एकता के उस गीत का स्मरण किया जो खिलाफत के जमाने में गाया गया था -
"अरे चमक मंदिरवा में चाँद / मसजिदवा में बंसी बजे! / मिली रहू हिंदू - मुसलमान / मान-अपमान तजो!" (मैला आंचल ; पृ.232)

इसके अलावा स्वाराज्य की कल्पना उस काल के भारतीय लोकमानस ने किस रूप में की थी, उसकी झांकी द्रष्टव्य है -
"भारत में आयल सुराज / चलु सखी देखन को... / भारथमाता / कथि जे चढ़ल सुराज / चलु सखी देखन को! / *** *** / हाथ चढ़ल आवे भारथमाता / डोली मैं बैठल सुराज! चलु सखी देखन को" (मैला आंचल ; पृ.224)

1947 से पहले हमारा एकमात्र उद्‌देश्‍य था आजादी लेकिन आजादी मिलने के बाद परिस्थितियाँ बदल गईं. लोगों के सपने टूट गए. सामान्य जनता की हालत में कोई परिवर्तन न हुआ. डॉ.रामदरश मिश्र के ये प्रश्‍न आज जन जन के प्रश्‍न हैं कि -
"कहाँ है वह सुराज्य ? कहाँ है वह समता की भावना, गांधीजी जिसका सपना देखते थे ? हत्यारों ने गांधीजी को पहले ही साफ कर दिया. आज मौज से मनमाना करते हैं." (जल टूटता हुआ ; पृ.9)

साहित्य का काम है प्रश्‍न उठाना, जनमानस को झिंझोड़ना और झकझोरना ताकि वह इन प्रश्‍नों के उत्तर प्राप्त करने के लिए सन्नद्ध हो. संतोष का विषय है कि हमारे साहित्यकार इस दिशा में सचेत हैं.
[स्रवंति : संपादकीय : अगस्त २००९]

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