गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

कुँवरनारायण

"चारों ओर लौह - मौन गुम्बद - सा अंधकार
जिसकी दीवारों से टकराती आवाजें ये
केवल सन्नाटे को और झनझनाती हैं.
*** *** *** ***
समय के केंचुल सरीखा रास्ता.
मारकर खाया हुआ - सा पड़ा
चारों ओर खाली नगर - पंजर ...
लुंज दीवारें -
सहारे
डरी, सिकुड़ी पड़ी
कुछ परछाइयाँ ." (आत्मजयी)


आधुनिक समाज की जटिलताओं एवं विसंगतियों के चितेरे, हिंदी कविता के शलाका पुरुष कुँवरनारायण को वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया. नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवरनारायण ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘तीसरा सप्तक’ (1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं. वे अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिए वर्तमान को देखने के लिए जाने जाते हैं. कुँवरनारायण के लिए जीवन संपर्क का अर्थ अनुभव मात्र नहीं अपितु वह अनुभूति और मननशक्ति भी है जो अनुभव के प्रति तीव्र और विचारपूर्वक प्रतिक्रिया कर सके.



मानवीय सार्थकता के पक्षधर कुँवरनारायण का जन्म 1927 में हुआ. वे चुंतक मिजाज और संवेदनशील कवि हैं. उनकी कविताओं में भावनाओं का आवेग नहीं अपितु संयम है. उनकी कविता रोमांटिक भावुकताग्रस्त कविता नहीं अपितु उसमें कई की प्रवृत्तियाँ सक्रिय होती नज़र आती हैं. उनकी कविता में एक प्रकार के रहस्य और विलक्षण प्रश्‍नाकुलता की मुद्रा पग पग पर दिखाई देती है. अस्तित्व को पहचानने की चिंता, अकेलापन, मनुष्य की नियति, मृत्युबोध आदि उनकी कविताओं में विशेष रूप से दीख पड़ते हैं. उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘आत्मजयी’, ‘आकारों के आसपास’, ‘चक्रव्यूह’, ‘अपने सामने’, ‘सन्नाटा या शोर’, ‘जब आदमी आदमी नहीं रह जाता’, ‘इन्तिज़ाम’, ‘दिल्ली की तरफ’, ‘शक’ आदि शामिल हैं.



कुँवरनारायण कवि होने के साथ साथ गंभीर आलोचक भी हैं. उनकी कविता का मूलाधार है - निरंतर और बेचैन प्रश्‍नाकुलता, जो किसी भी सहृदय का सहज स्वाभाव होती है. उनहोंने अपने काव्यबोध से यह प्रमाणित किया कि जो सुंदर है, वह कठिन भी है; चूँकि मानवीय हित की कल्पना सुंदर है लेकिन उसके लिए कठिनतर प्रयत्‍न ज़रूरी है. उनकी पक्षधरता विश्‍वमानवता के सामने उपस्थित संकटों की पहचान में निहित है. कठिन समय का अहसास कुँवरनारायण की कविताओं में बार बार उभरता है -
"शायद उसी मुश्किल वक्त में / जब मैं एक डरे हुए जानवर की तरह / उसे अकेला छोड़कर बच निकला था ख़तरे से सुरक्षा की ओर / वह एक फँसे हुए जानवर की तरह / खूंख्वार हो गया था." (जब आदमी आदमी नहीं रह जाता / अपने सामने).



कुँवरनारायण ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में व्याप्त त्रास्द मूल्यहीनता का निर्मम उद्‍घाटन किया है. मुक्तिबोध ने कुँवरनारायण के बारे में लिखा है -
"महत्व की बात यह है कि आज, जबकि साधारणतः लेखक और कवि इसी व्यवहार क्षेत्र में कार्यकुशल होकर अपने को अधिकाधिक सफल और प्रभावशाली बनाने के प्रयत्‍न में लीन रहते हैं और इसके लिए बिक तक जाते हैं, कुँवरनारायण ऐसा कवि है जो उसी व्यवहार क्षेत्र के विरुद्ध तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ करता हुआ, जीवन के क्षण क्षण को तड़िन्मय और संवेदनमय बनाने के लिए अकुलाता हुआ, पीड़ित अंतरात्मा के स्तर को उभारता है. उसे वास्तविक मानवीय सार्थकता की तलाश है. वह वास्तविक मानवीय सार्थकता उसे कहीं नहीं मिल पाती. इसलिए उसका चित्त खिन्न हो जाता है. पर वह केवल दुःख के काले रंगों में घिरकर डूब नहीं जाता, वरन्‌ मानव के हृदय विस्तार की क्रिया में जो एक मूल समस्यात्मक बाधा है, उस बाधा के वस्तुगत रूप का भी स्पष्ट चित्रण करता है. उसका स्वर उदात्त और नैतिक महत्व धारण कर लेता है. कुँवरनारायण मूलतः आदर्शवादी कवि हैं."



वास्तविक मानवीय सार्थकता के खोजी कवि कुँवरनारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने के अवसर पर उन्हीं के कवितांश के माध्यम से ‘स्रवंति ’ परिवार की बधाई निवेदित है -


"चेतना का न्यून अंकुर,
मनुजता की सहज मर्यादा,
उपजने दो खुली, सन्तुष्ट, रस जलवायु में,
क्योंकि विकसित व्यक्ति ही वह देवता है
इतर मानव जिसे केवल पूजता है;
आँक लेगा वह पनप कर
विश्‍व का विस्तार अपनी अस्मिता में ...
सिर्फ उसकी बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो."

[स्रवंति:दिसंबर 2008 संपादकीय]

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