शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

गाँधी जयंती : ''हिंद स्वराज्य''

अक्‍तूबर का महीना आते ही सबसे पहले हम सत्य और अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी (02 अक्‍तूबर,1869 - 30 जनवरी,1948) को याद करते हैं. इस उपलक्ष्य में ‘स्रवंति ’ की ओर से आपको ‘गांधी जयंती ’ की शुभकामनाएँ. इस अंक में हम महात्मा गांधी की कृति ‘हिंद स्वराज्य ’(1909) की ओर आपका ध्यान आकर्षित करेंगे क्योंकि यह ‘हिंद स्वराज्य ’ का शताब्दी वर्ष है.

1909 में गुजराती में लिखी गई यह पुस्तक महात्मा गांधी की पहली पुस्तक है. पाठक और संपादक की संवाद शैली में लिखी गई इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद ‘हिंद स्वराज्य ’ नाम से नवजीवन संस्था ने प्रकाशित किया.

1893 में गांधी दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए दक्षिण अफ्रीका गए. बाद में वे 1909 में ट्रांसवाल डिप्यूटेशन के साथ लंदन गए थे. वहाँ उनकी मुलाकात कुछ स्वराज्य प्रेमी भारतीय नवयुवकों से हुई. गांधी जी ने उनसे तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों, हिंदुस्तान की दशा, उसकी आजादी की संभावनाएँ, शिक्षा, सत्य, अहिंसा और स्वराज्य जैसे अनेक मुद्‍दों पर चर्चा की. चार महीने के बाद वापस दक्षिण अफ्रीका लौटते समय उन्होंने किलडोनन कैसल पर मात्र दस दिनों (13 - 22 नवंबर, 1909) में उस बातचीत से संदर्भित विचारों को प्रश्‍नोत्तर शैली में ‘हिंद स्वराज्य ’ के रूप में लिपिबद्ध किया.

गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज्य ’ के उद्धेश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है -
"उद्धेश्य सिर्फ देश की सेवा का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है."
पुनः 1921 में इस पुस्तक का सार प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा कि -
"1909 में यह लिखी गई थी. इसमें मेरी जो मान्यता प्रकट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है. मुझे लगता है कि हिंदुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता ’ का त्याग करेगा, तो उससे उसे ही लाभ होगा. ... इस किताब में जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं. मैं जानता हूँ कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है. ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्‍वास है कि इसमें जिस स्वराज्य की तस्वीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक (आम) प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढ़ंग का स्वराज्य पाना है. ... मेरी यह छोटी सी किताब इतनी निर्दोष है कि यह बच्चों के हाथ में भी दी जा सकती है. यह द्वेष धर्म की जगह पर प्रेम धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म - बलिदान स्थापित करती है और पशुबल के खिलाफ टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है."

तत्कालीन परिस्थितियों, विचारों और तर्कों को गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज्य' (94 पृष्ठ) में दो परिशिष्टों सहित
‘सुधार का दर्शन ’, ‘हिंदुस्तान की दशा ’, ‘हिंदू -मुसलमान ’, ‘वकील और डॉक्टर ’, ‘सत्याग्रह ’, ‘पढ़ाई ’, ‘मशीनें ’ और ‘छुटकारा ’
शीर्षक 20 छोटे - छोटे अध्यायों में संजोया है. प्रथम अध्याय में पत्रकारों की आचार संहिता के बारे में विचार प्रकट करते हुए उन्होंने पत्रकारिता की कसौटियों को स्पष्ट किया है. इस अध्याय के अंत में उन्होंने यह लिखा है कि
"कांग्रेस ने अलग - अलग जगहों पर हिंदियों को इकट्ठा करके उनमें ‘हम एक प्रजा है ’ ऐसे जोश पैदा किया."
यहाँ पर प्रयुक्‍त शब्द ‘हिंदियों ’ वसतुतः ‘हिंदुस्तानियों ’ का वाचक है.

गांधी जी मशीनी सभ्यता के खिलाफ थे क्योंकि वे मानते थे कि मशीनें मनुष्य का रोजगार छीनकर उसे भूखों मरने के लिए मजबूर करती हैं :
"मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहाँ की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है. यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूँ. ... बंबई की मिलों में जो मजदूर काम करते हैं, उनकी हालत देखकर कोई भी काँप उठेगा. जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तब वे औरतें भूखों नहीं मरती थीं." गांधी जी के इन विचारों को भले आज अक्षरशः स्वीकारना कठिन प्रतीत हो लेकिन इस दृष्टि से ये आज भी प्रासंगिक हैं कि आज मनुष्य यांत्रिक पुर्जा बन गया है. गांधी जी का स्वराज्य इस मशीनी सभ्यता से मुक्ति प्राप्त करने पर जोर देती है. ‘हिंद स्वराज्य ’ की असली अवधारणा को उन्होंने एक वाक्य में समेटा है - "हम अपने ऊपर राज करें वही स्वराज्य है, और वह स्वराज्य हमारी हथेली में है."


‘हिंद स्वराज्य ’ में अन्यत्र गांधी जी ने स्वराज्य के बारे में अपने विचार यों व्यक्‍त किए हैं -
"स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिए और सबको उसे अपना बनाना चाहिए. मांगने से कुछ नहीं मिलेगा, यह तो खुद लेना होगा."
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि एक हद तक स्वराज्य में अंधाधुंधी को बरदाशत कर सकते हैं लेकिन परराज्य को नहीं क्योंकि परराज्य हमारी बरबादी का सूचक है.

बापू ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य ’ के माध्य्म से भारतीय जनता ही नहीं बल्कि विश्‍व के तमाम लोगों के सामने जीवन की कसौटियों को रखा है. उनका स्वराज्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता तक सीमित नहीं हैं. जीवन के हर क्षेत्र में, धर्म, सत्य और अहिंसा का साम्राज्य देखना ही उनका सपना था. अतः वे लिखते हैं
"मेरा मन गवाही देता है कि ऐसा स्वराज्य पाने के लिए यह देह समर्पित है."


गांधी जी का ‘हिंद स्वराज्य ’ 100 साल पहले भी प्रासंगिक था, आज भी प्रासंगिक हैं और कल भी रहेगा, इसमें दो राय नहीं हैं. ब्रिटिश शासन की गुलामी से तो भारत आजाद हुआ लेकिन आज तक वह ‘स्वराज्य ’ प्राप्त नहीं हुआ जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था. बापू हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई में कोई भेदभाव नहीं करते थे. उनके अनुसार तो
"हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, वे एक - देशीय, एक - मुल्की हैं, वे मुल्की - भाई हैं."

मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक विकास अर्थात्‌ सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा अत्यंत जरूरी है. मातृभाषा का महत्व स्पष्ट करते हुए गांधी जी लिखते हैं -
"हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए. सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा या नीति की शिक्षा होनी चाहिए. हरेक पढ़े - लिखे हिंदी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमानों को अरबी का, पारसी को फारसी का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए."

बापू ने ‘हिंद स्वराज्य ’ के ‘परिशिष्ट 2 ’में ब्रिटिश सांसद जे.सी.मोर का उद्धरण अंकित किया है जिससे भारत के स्वभाव का पता चलता है -
"हमने पाया कि भारत एक प्राचीन सभ्यता है जो वहाँ हजारों सालों से रह रही अतिशय बुद्धिमान जातियों के चरित्र का अंग बन चुकी है. उस सभ्यता ने भारत को राजनैतिक संरचना तो दी है, समाज और परिवार के जीवन को चलने वाली अनेकों विविधतापूर्ण और संपन्न संस्थाएँ भी दी हैं. अपनी इन संस्थाओं के कारण हिंदू जाति का चरित्र उन्नत है. वे कुशल व्यापारी हैं, बुद्धिमान, विचारशील और समीक्षाबुद्धि से संपन्न हैं, कमखर्च हैं, उदार हैं, संयमी हैं, धर्म पर चलने वाले और नियमों को मानने वाले हैं, मधुर व्यवहार वाले हैं, दयालु हैं, विपत्ति में धैर्यशील हैं और मातापिता की आज्ञा मानने वाले हैं."


इस पुस्तक के प्रारंभ में दी गई प्रस्तावना बहुत ही महत्वपूर्ण है. सात प्रस्तावनाओं में दो काकासाहब कालेलकर की हैं, दो महादेवभाई की और तीन महात्मा गांधी की हैं. काकासाहब ने ‘दो शब्द ’ में लिखा है कि "इस अमर किताब का स्थान तो भारतीय जीवन में हमेशा के लिए रहेगा ही.
" महादेवभाई ने ‘उपोद्‍धात’ के अंत में लिखा है - "सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्वीकार से अंत में क्या नतीजा आयेगा, उसकी तस्वीर इसमें है." महात्मा गांधी द्वारा लिखित प्रस्तावना को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि किस परिस्थिति में बापू को ‘हिंद स्वराज्य ’ लिखने की प्रेरणा हुई - "जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिखा है. बहुत पढ़ा, बहुत सोचा. विलायत में ट्रांसवाल डेप्युटेशन के साथ मैं चार माह रहा, उस बीच हो सका उतने हिंदुस्तानियों के साथ मैंने सोच - विचार किया, हो सका उतने अंग्रेजों से भी मैं मिला. अपने जो विचार मुझे आखिरी मालूम हुए, उन्हें पाठकों के सामने रखना मैंने अपना फर्ज समझा."

[अक्‍तूबर 2009: संपादकीय :स्रवंति]

2 टिप्‍पणियां:

Mithilesh dubey ने कहा…

महात्मा गांधी जी का जीवन हमारे लिए हमेशा प्रेरणा स्रोत रहेगा।

अनुनाद सिंह ने कहा…

हिन्दस्वराज प्रत्येक भारतप्रेमी के लिये गीता से कम नहीं है।