सोमवार, 2 नवंबर 2009

आज की हिंदी कविता में पर्यावरण

"हैलो, मनुष्य,
मैं आकाश हूँ.
कल सृजन था, निर्माण था,
आज प्रलय हूँ, विनाश हूँ.

मेरी छाती में जो छेद हो गए हैं काले काले,
ये तुम्हारे भालों के घाव हैं,
ये कभी नहीं भरनेवाले."
(मैं आकाश बोल रहा हूँ, ऋषभ देव शर्मा, ताकि सनद रहे, पृ. ५२)


इक्कीसवीं शती की प्रमुख चिंताओं में से एक है पर्यावरण संरक्षण की चिंता. पर्यावरण अर्थात्‌ हमारे आस-पास का वातावरण. वात्‌ (हवा) का आवरण. यह सर्वविदित है कि हवा विभिन्न गैसों का मिश्रण है जिसमें ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा सल्फर-डाई-ऑक्साइड प्रमुख हैं. गुरुत्वाकर्षण के कारण भारी गैसें पृथ्वी की सतह पर रहती हैं और हल्की गैसें ऊपरी वातावरण में. गुरुत्वाकर्षण के साथ साथ ताप एवं सघनता के कारण भी गैसों की परतें बनती हैं. वस्तुतः वायुमंडल में 79% नाइट्रोजन, 20% ऑक्सीजन, 0.3% कार्बन-डाई-ऑक्साइड और शेष में पानी तथा अन्य गैसें होती हैं. इनकी मात्रा कम या ज्यादा होने से पर्यावरण का संतुलन परिवर्तित होता है.


पर्यावरण में उपस्थित ऑक्सीजन गैस प्राणदायक है. प्राणी श्‍वास द्वारा ऑक्सीजन (प्राणवायु) अंदर लेते हैं और कार्बन-डाई-ऑक्साइड को बाहर निकालते हैं. इस कार्बन-डाई-ऑक्साइड को पेड़-पौधे भोजन बनाने के लिए उपयोग करते हैं और ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं. रात में सूर्य की रोशनी न होने के कारण पेड़-पौधे कार्बन-डाई-ऑक्साइड बाहर निकालते हैं. पर्यावरण में वायु के साथ साथ जल, पृथ्वी, जीव जंतु, वनस्पति तथा अन्य प्राकृतिक संसाधान भी शामिल हैं. ये सब मिलकर संतुलित पर्यावरण की रचना करते हैं.


प्रकृति की रमणीयता हर एक को अपनी ओर आकर्षित करती है. सहृदय साहित्यकार भी पर्यावरण के प्रति सहज रूप से आकर्षित होते हैं. अतः आदिकालीन साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक में पर्यावरण / प्रकृति चित्रण दिखाई देता है. आज की कविता में पर्यावरण के रमणीय दृश्‍यों के साथ साथ प्राकृतिक विपदाओं के भी हृदय विदारक चित्र अंकित हैं.


प्रकृति मानव जीवन का अटूट अंग है. प्रकृति से वह सब कुछ प्राप्त होता है जो आरामदायक हैं. अतः कवयित्री कविता वाचक्नवी कहती है कि "प्रकृति / सर्वस्व सौंपती / लुटाती - रूप रंग / पूरती है चौक मानो / फैलाती भुजाएँ स्वागती." (पर्यटन - प्रेम / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ.146)


वन विभिन्न जातियों और प्रजातियों के वृक्षों, वनस्पतियों तथा जीव जंतुओं का समूह है. वन मूल रूप से सूर्य ताप, आँधी और सॉइल इरोशन को रोकते हैं. वनों में उगे वृक्ष और वनस्पतियाँ निरंतर ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जो समस्त जीवधारियों के लिए हितकर है. हरे भरे वनों को देखकर सबका मन पुलकित होता है - "जंगल पूरा / उग आया है / बरसों - बरस / तपी / माटी पर / और मरुत्‌ में / भीगा-भीगा / गीलापन है / सजी सलोनी / मही हुमड़कर / छाया के आँचल / ढकती है / और हरित - हृदय / पलकों की पांखों पर / प्रतिपल / कण - कण का विस्तार... / विविध - विध / माप रहा है / ... गंध गिलहरी / गलबहियाँ / गुल्मों को डाले." (आषाढ़ / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 53)


सतपुडा़ की पर्वत श्रेणियाँ और वन्य प्राणियों से भरपूर जंगल की रमणीयता से मुग्ध होकर आर.के.पालीवाल कहते हैं कि "सतपुडा़ की, बूढ़ी पर्वत शृंखलाओं की / तलहटी में स्थित मड़ई का जंगल / सिर्फ़ निवास स्थान नहीं हैं वन्य जीवों का / इस जंगल की रमणीयता / क़लम बयानी के सीमित संशोधनों के बाहर है. /.../ तवा नदी की सहायक / एक सदानीरा नदी के तट से होती है / मड़ई के खूबसूरत जंगल की शुरुआत / यहाँ पूरब की दो छोटी पहाड़ियों के / ऐन बीच से उगता है सूरज / मानों उग रहा है / किसी षोडशी के उन्न्त उरोजों के बीच" (मड़ई का जंगल / आर.के.पालीवाल / समकालीन भारतीय साहित्य / जुलाई - अगस्त 2008 / पृ. 155)


पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में वृक्षों और वनस्पतियों का महत्वपूर्ण योगदान है. इसके कारण ही हमारे देश की संस्कृति को ‘अरण्य संस्कृति ’ के नाम से पुकारा जाता था. विकास के नाम पर मनुष्य पर्यावरण से छेड़छाड़ कर रहा है. उसका संतुलन बिगाड़ रहा है. वनों की रक्षा करने के बजाय वह उनका विनाश कर रहा है. अवैध रूप से वृक्षों को काटकर वन संपदा को लूट रहा है. इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक विपदाएँ घटित हो रही हैं. कवयित्री कविता वाचक्नवी ने धरती की इस पीड़ा एवं वेदना को अपनी कविता में इस तरह उकेरा है - "मेरे हृदय की कोमलता को / अपने क्रूर हाथों से / बेध कर / ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण किया/उखाड़ कर प्राणवाही पेड़-पौधे/बो दिए धुआँ उगलते कल - कारखाने / उत्पादन के सामान सजाए / मेरे पोर-पोर को बींध कर / स्‍तंभ गाड़े / विद्‍युत्वाही तारों के / जलवाही धाराओं को बाँध दिया. / तुम्हारी कुदालों, खुरपियों, फावडों, / मशीनों, आरियों, बुलडोज़रों से / कँपती थरथराती रही मैं. / तुम्हारे घरों की नींव / मेरी बाहों पर थी / अपने घर के मान में / सरो-सामान में / भूल गए तुम. / ... मैं थोड़ा हिली / तो लो / भरभराकर गिर गए / तुम्हारे घर. / फटा तो हृदय / मेरा ही." (भूकंप / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 119)


उद्‍योगीकरण के फलस्वरूप पर्यावरण में हरित गैस (Green gas) बढ़ रही है और पृथ्वी हरित गृह (Green House) के रूप में परिवर्तित हो रही है. कार्बन-डाई-ऑक्साइड, फ्रिओन, नाइट्रोजन ऑक्साइअड और सल्फर-डाई-ऑक्साइड जैसी हरित गैसों की मात्रा दिन ब दिन बढ़ रही है जिसके कारण पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ रहा है. ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होने के कारण ओजोन परत (Ozone Layer) में छेद हो रहे हैं. अतः दिन ब दिन तापक्रम बढ़ रहा है. वस्तुतः ओजोन परत सूर्य से आनेवाली 90% घातक अल्ट्रा वॉयलेट किरणों (UV Rays) को सोखने का काम करती है. यह परत वातावरण का कवच है. मनुष्य इसी कवच को नुकसान पहुँचाकर अनेक चर्म रोगों का शिकार हो रहा है. अतः ऋषभ देव शर्मा आकाश की वेदना को उजागर करते हैं - "हैलो, मनुष्य, / मैं आकाश हूँ. / कल तक रस था. आनंद था, / आज घुटन हूँ, संत्रास हूँ. / रस का जो स्रोत था / जिससे धरा थी रसवन्ती / उसमें तो घोल दिया तुमने / रेडियम और यूरेनियम, / जिस औंधे कुएँ में से / फूट पड़ता था / आनंद का पातालतोड़ फव्वारा, / काट डाला तुमने उसकी जड़ों को / रेडियोधर्मी विकिरणों के फावड़ों और नाभिकीया ऊर्जा की पलकटी से." (मैं आकाश बोल रहा हूँ / ऋषभ देव शर्मा /ताकि सनद रहे / पृ. ५७)
प्रेमशंकर मिश्र भी कहते हैं कि "ताप के ताए दिन हैं / तोल तोल मुख खोलो मैना / बड़े कठिन पल-छिन हैं / ताप के ताए दिन हैं. / आँगन की गौरैया / चुप है / चुप है / पिंजरे की ललमुनिया / हर घर के चौबारे / चुप हैं / चुप है / जन अलाव की दुनिया. / दुर्बल साँसों की धड़कन है / बदले सूरज के दुर्दिन हैं / बड़े कठिन पल-छिन हैं" (ताप के ताए दिन हैं / प्रेमशंकर मिश्र / साहित्य अमृत / अक्तूबर -2009/पृ. 7)

वैश्‍विक गर्मी (Global Warming) के कारण अनेक जलस्रोत सूख रहे हैं. पेयजल और प्रकृति के लिए आवश्‍यक जल की कमी के कारण कृषि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय संगठन विश्‍व वन्य जीव कोश द्वारा जारी तथ्यों के अनुसार "ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हिमाचल में स्थित हिमनदियों का दुनिया भर में सबसे तेजी से क्षरण हो रहा है. इसके परिणामस्वरूप हिमनदियों से जल प्राप्त करनेवाली नदियाँ सूखने लगेंगी और भारतीय उपमहाद्वीप में जल संकट उत्पन्न होने की आशंका उत्पन्न होगी." अतः कविता वाचक्नवी उद्वेलित होकर पूछती हैं कि "यह धरती / कितना बोएगी / अपने भीतर / बीज तुम्हारे / बिना खाद पानी रखाव के ? / सिर पर सम्मुख / जलता सूरज / भभक रहा है / लपटों में घिर देह बचाती / पृथ्वी का हरियाला आंचल / झुलस गया है / चीत्कार पर नहीं करेगी / इसे विधाता ने रच डाला था / सहने को / भला-बुरा सब / खेल-खेल में अनायास ही, / केवल सब को / सब देने को." (धरती / कविता वाचक्‍नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 139)


घटते हुए वन, बढ़ती हुई जनसंख्या, उद्‍योगीकरण, नगरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण प्रदूषण तेजी़ से बढ़ रहा है. जल और वायु के साथ साथ मिट्टी भी प्रदूषित हो गई है. "बहुत-सी चीजें थीं वहाँ / मिट्टी के ढेर के नीचे, दबीं / वर्षों से, समय की परतों को / हटाने पर देखा - / महानगरीय कचरे में / पंच महाभूतों के ऐसे-ऐसे सम्मिश्रण / नए सभ्य उत्पाद-रासायनिक / और पॉलिथीन / धरती पचा नहीं पाई / इस बार. / ... / इतने वर्षों बाद भी / असमंजस, असमर्थ, अपमान में / अपना धरती होने का धर्म / निभा नहीं पाई... / मनुष्य जीवन के आधुनिक / आयामों के सामने / लज्जित थी धरती / हाँ ! इतना जरूर हुआ / कि उस ठिठकी हुई धरती पर / मिट्टी के ढेर पर / अब कुछ कोमल कोंपलें / सगर्व लहरा रहीं थीं." (कूड़ा कचरा और कोंपलें / बलदेव वंशी /समकालीन भारतीय साहित्य /जुलाई-अगस्त 2008/ पृ. 147)


प्रदूषण इतना बढ़ रहा है कि "सरवर के अधिवासी पंछी / जाने कहाँ उड़े जाते हैं / मंजिलवाली पगडंडी के / रास्ते / स्वयं मुड़े जाते हैं / कदम -कदम / पतझड़ में छिपकर / विष काँटे / बिखरे अनगिन हैं / बड़े कठिन पल-छिन हैं," (ताप के ताए दिन हैं / प्रेमशंकर मिश्र / साहित्य अमृत / अक्तूबर-2009 / पृ. 07)


चारों ओर व्याप्त प्रदूषण के कारण पशु-पक्षियों की अनेक जातियों एवं प्रजातियों का अस्तित्व मिट चुका है और मिटने की खतरा भी मंडरा रहा है. चिड़ियों की चहचहाट से तथा गौरैयों के अंडों को छूने से जो रोमांच का अनुभव होता है उससे शायद आनेवाली पीढ़ियाँ वंचित रह जाएँगी. इसलिए राजेंद्र मागदेव कहते हैं कि "हमने गौरैयों के घोंसले / रोशनदानों में देखे थे / हमने गौरैयों के घोंसले / लकड़ी की पुरानी अलमारी पर देखे थे / हमने वहाँ गौरैयों के अंडे / पंखों, तिनकों और सुतलियों के बीच रखे देखे थे / हमने अंडों को चुपचाप छूकर देखा था / हम छूते ही अजीब रोमांच से भर गए थे / वह रोमांच, आनेवाली पीढ़ियों को / किस तरह से समझाएँगे हम?" (गौरैया नहीं आती अब / राजेंद्र मागदेव /समकालीन भारतीय साहित्य / मई-जून 2009 / पृ.39)


राजनेता प्रदूषण नियंत्रण और वन संरक्षण की बातें करते हैं. उनकी बातें महज भाषण तक ही सीमित हैं...........
"जिसने भी लिया हो मुझसे बदला / वह उसे दे जाए / वनमंत्री ने कहा उत्सव की ठंड में / जंगल जल रहा है उत्तराखंड में / जनता नहीं समझती / कितना कठिन है इस जाड़े में / राज चलाना / आँकडेवाली जनता, समस्यावाली जनता / और स्थानीय जनता तो क्या चीज है / अब तो और भी महान हो गई है / भारतीय जनता. / .... / किस जनता से किस जनता तक जाने में / किस जनता को किस जनता तक लाने में / कितनी कठिनाई होती है इस जाड़े में." (कार्यकर्ता से / कवि ने कहा :लीलाधर जगूड़ी / पृ. 63)


पर्यावरण का संबंध संपूर्ण भौतिक एवं जैविक व्यवस्था से है. यदि प्रदूषण को नहीं रोका गया तो प्राकृतिक संपदा के साथ साथ मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी से मिट सकता है -
"बचाना है तो बचाए जाने चाहिए गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा, पेड़ों में घोंसलें, अख़बारों में सच्चाई, राजनीति में नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी"
(बचाओ/कवि ने कहा : उदय प्रकाश/पृ. 93)


( "तीसरा विमर्श" में प्रकाशित )
तीसरा विमर्श / (सं) विश्रांत वसिष्ठ / संवाद भवन, ई-३, जगन्नाथ चौक (६० फुटा रोड), श्रीराम कालोनी, खजूरी ख़ास, दिल्ली- ११० ०९४ (अथवा) दक्षिण विकास नगर, एलम, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) - २४७ ७७१

[''स्रवंति,जून२०१० अंक में प्रकाशित].

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