रविवार, 28 मार्च 2010

तेलुगु के मानवतावादी कवि श्रीश्री : शताब्दी संदर्भ

" श्रम निष्फलमै, जनि निष्‍ठुरमै,
नूतिनि गोतिनी वेदिकेवाल्ल्लु,
अनेकुलिंका अभाग्युलंता,
अनाथुलंता,
अशांतुलंता,
दीर्घ श्रुतिलो, तीव्र ध्‍वनि तो
विप्लव शंखम्‌ विनिपिस्तारोई "

(भाव : जब शोषित लाचार होगा और शोषकों के अत्याचार बढ़ेंगे तब सारे श्रमिक व शोषित वर्ग का विप्लव शंख प्रतिध्वनित होगा)


विप्लव का दहकता अंगार, मानवतावादी जनकवि श्रीरंगम्‌ श्रीनिवास राव (श्रीश्री) का जन्म 2 जनवरी 1910 में विशाखपट्टणम्‌ (आं.प्र) में हुआ. श्री श्री तेलुगु अभ्यूदय कविता (प्रगतिशील कविता) को एक नया आयाम दिया है. लौकिक जीवन के हर एक रंग रूप और मानव हृदय की जटिल भावनाओं को उन्होंने अपनी कविता में अभिव्यक्त किया है. उनकी कविता में एक ओर जहाँ क्रांति की ज्वालमुखी फूटती है वहीं दूसरी ओर भावुकता भी प्रस्फुटित होती है. वर्ग विहीन समाज की स्थापना ही श्रीश्री का सपना था. अतः उन्होंने नवयुवकों को आवाज दी - "मरो प्रपंचम्‌/मरो प्रपंचम्‌/मरो प्रपंचम्‌ पिलिचिंदी!/पदंड़ि मुंदुकु/ पदंड़ि त्रोसुकु/पोदाम पोदाम पै पैकि!"(एक नया युग/एक नया जग/एक नया जग रहा पुकार!/डट के चलो तुम/सट के चलो तुम/चढ़ के चलो तुम/बढ़के चलो !" ; महाप्रस्थान)


श्रीश्री ने अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों का पर्दाफाश किया था. वस्तुतः ‘मनुष्‍य ’ ही उनकी कविता का केंद्रबिंदु है. ‘महासंकल्‍पम्‌ ’ (महासंकल्प) नामक कविता के माध्यम से उन्होंने यह स्पष्‍ट किया है कि "मनुष्युडे ना संदेशम्‌, मानवुडे ना संगीतम्‌"(मनुष्य ही मेरा संदेश है, मानव ही मेरा संगीत है). हम जब भी श्रीश्री की कविता का आकलन करेंगे तब मन में यही प्रश्‍न उभरता है कि उनका ‘मानव ’ कौन है? इस प्रश्‍न का समाधान भी हमें उन्हीं की कविता ‘मानुवुड़ा ’ (हे मानव !) में मिलेगा. इसमें कवि ने मनुष्‍य के हर एक रूप का सफल चित्रण किया है. इस कविता की अंतिम पंक्तियों को देखें - "खैदी !/रौड़ी !/खूनीखोर !/बेबी !/मानव !/हे मानव !" . समाज में मानव के अनेक रूप हैं. वह खैदी भी है और गुंडा भी. खुंख्वार खूनी भी है और निर्मल एवं कोमल शिशु भी. इन सबसे ऊपर वह मानव है.


श्रीश्री की कविताओं में मुख्य रूप से पूँजीपतियों के हाथों में पीड़ित शोषक वर्ग का इमेज अंकित है. वास्तविक जीवन की कठोर यथार्थता तथा असफलताओं ने मानव को निराशाग्रस्त और कुंठित बनाया. अतः श्रीश्री आक्रोश व्यक्‍त करते हैं कि - "मनमंता बानिसलम्‌,/गानुगलम्‌,/पीनुगुलम‌ !/वेनुक दगा, मुंदु दगा,/कुडि एडमल दगा, दगा !/***/मनदी ओक ब्रतुकेना?/कुक्कल वले, नक्कल वले!/मनदी ओक ब्रतुकेना ?/संदुलो पंदुलवले ?(हम सब गुलाम हैं,/कोल्हू हैं, मुर्दे हैं,/पीछे छल, आगे छल/दाएँ - बाएँ छल ही छल !/***/हमारी भी कोई ज़िंदगी है ?/कूकरों-सी, सियारों-सी,/हमारी भी कोई ज़िंदगी है ?/गलियों की सुव्वरों-सी? ; कडुवा गीत)


संसार के सभी देशों के इतिहास में छिपे ‘असली’ और ‘नकली ’ को उन्होंने पहली बार अपनी कविता ‘देश चरित्रलु ’(देश का इतिहास) में उजागर किया जो वस्तुतः द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का प्रतिबिंब है - "ये देश चरित्र चूचिना/ ये मुन्नदी गर्व कारणम्‌ ?/नर जाति चरित्र समस्तम्‌/पर-पीड़ परायणत्वम्‌."(किसी भी देश का देखें इतिहास/क्या है उसमें गर्व का अंश/नर जाति का समस्त इतिहास/पर-पीड़न से भरा हुआ है.)


मार्क्स की विचार पद्धति से प्रभावित श्रीश्री ने उपेक्षित, दुर्बल, निर्धन जनता की दयनीय स्थिति को उजागर किया है - "बलवंतुलु दुर्बल जातिनी/ बानिसलनु काविंचारु;/नरहंतलु धराधिपतुलै/चरित्रमुन प्रसिद्धि केक्किरी./***/रणरंगम्‌ कानिचोट भू/स्थलमंता वेदकिना दोरकदु;/***चल्लारिन संसारालू/मरणिन्चिन जन संदोहम्‌/असहायुल हाहाकारम्‌/चरित्रलो मूलुगुतुन्नवी."(बली लोग दुर्बल जन को/दास बनाकर कुचल चुके हैं/नरहंतक सब धराधीश बन/इतिहास में बैठ चुके हैं./***नहीं दीखना ऐसा स्थल जो/नर के रक्‍त से सिंचा न हो/***/बुझे पड़े सारे परिवार/.गिरी मरी जनता इकतार/असहायों के हाहाकार/कराहते हैं इतिहासों में ; देशों का इतिहास)


मार्क्स की पुस्तक में लिखी गई पहली पंक्‍तियाँ पूरी तरह श्रीश्री की निम्नलिखित पंक्‍तियों में उतर आई हैं - "परस्परम्‌ संघर्षिंचिन/शक्‍तुल्लो चरित्र पुट्टेनु" (शक्‍तियों के पारस्परिक संघर्ष से/जन्म लिया था इस सारा इतिहास ने ; देश का इतिहास)


झूठे इतिहास में उपेक्षित तथ्यों को खोज निकालने के लिए कवि हमें प्रेरित करते हैं - "इतिहासपु चीकटिकोणम्‌/अट्टडुगुन पडि कनिपिंचिना/कथलन्नी कावालिप्पुडु !/दाचेस्ते दागनी सत्यम्‌." (इतिहास के अंधेरे कोने/निचले तह में गिरकर नजर न आती/कहानियाँ सब हमें चाहिए अब/छिपाने से नहीं छिपता सत्य ; देश का इतिहास)


विश्‍व भर के मजदूरों के एक हो जाने से पूँजीवादी व्यवस्था का विनाश अवश्य होगा. मार्क्स द्वारा कही गई इस बात को श्रीश्री ने अपनी कविता में उकेरा है - "चीनालो रिक्शावाला,/चेक देशपु गनि पनिमनिषि,/आयरलैंडुन ओड कलासी,/अनगारिन आर्थुलंदरू -/***/हाटेन टाट,जूलू, नीग्रो,/खंडांतर नाना जातुलु/चारित्रिक यथार्थत्वम्‌,/चाटिस्ता ओक गोंतुकतो."(चीन देश का रिक्शावाला/चेक देश के खानी नौकर/आयरलैंड के जहाज नौकर/बढ़े पड़े सारे पीड़ित नर/***/हाटेन टाट, जूलू, नीग्रो,/सारे खंड़ांतरवासी जन/बताएँगे एक कंठ से/इतिहासों का मार्मिक मन ; देश का इतिहास)


फ्रांस की क्रांति से यूरोप के प्रायः सभी देशों में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ. इसके बाद रूस की क्रांति के कारण साम्यवाद की स्थापना हुई. श्रीश्री ने अपनी कविता ‘गर्जिंचु रष्या ’ (गर्जना कर रूस !) में यह उल्लेख किया है कि अत्याचारी शासकों का ध्वंस करना चाहिए - "गर्जिंचु रष्या !/गांड्रिंचु रष्या !/परजन्य शंखम्‌ पलिकिंचु रष्या !/दौर्जन्य राज्यम्‌ ध्वंसिंचु रष्या!" (गर्जना कर रूस!/गर्जना कर/शंख फूँककर/युद्ध की तू घोषणा कर/अत्याचारी शासकों का ध्वंस कर)


भारत में जो औद्‍योगिक विकास हुआ है, वह शोषण के आड़ में हुआ था. भारत पहले लूट का शिकार बना और बाद में शोषण का. आज मानव यांत्रिक पुर्जा बन गया है. औद्‍योगिक विकास के कारण मनुष्य का बौद्धिक विकास तो हुआ, लेकिन शोषण का स्वरूप सघन और सुव्यवस्थित होता गया. यांत्रिक सभ्यता के कारण कृषकों को मजबूर होकर मजदूर बनना पड़ा और रोजी रोटी के लिए शहर की ओर भागना पड़ा. कवि अपनी कविता ‘बाटसारी ’(राही) में पापी पेट भरने के लिए अपनी माँ की बात टालकर शहर जाननेवाले राही की निस्सहायता पर सहानुभूतिव्यक्‍त की हैं -"बाटसारी कलेबरंतो/शीतवायुवु आडुकुंटोंदि !/पल्लेटूल्लो तल्लिकेदो/पाडु कललो पेगु कदिलिंदि !" (राही के शरीर से/ठंडी हवा खेलने लगी !/माँ अपने सपने में/बेचैनी झेलने लगी)


‘भिक्षुवर्षीयसी ’ में कवि ने वर्षा में भीगती हुई एक भिखारिनी का यथार्थ चित्र अंकित किया है -"दारिपक्क, चेट्टुक्रिंद,/आरिन कुंपटि विधान/कूर्चुन्नदि मुसलदोक्कते/मूलुगुतू/***/आ अव्व मरणिस्ते/आ पापम्‌ एव्वरिदनी/वेर्रिगालि प्रश्‍निस्तू/वेल्लिपोयिंदि !" (पथ के समीप, तरू के तले,/बुझी पड़ी एक अंगीठी-सी/बुढ़िया बैठी थी कराहती,/***/पगलीहवा प्रश्‍न करती निकल गई-/यदी वह बूढ़ी मर जाए तो/वह पाप किसके सिर लगेगा?)


प्रगतिवादी कवि की दृष्टि में कविता के लिए त्याज्य वस्तु कोई नहीं है. कोई चीज़ बुरी या भली नहीं होती. अर्थात्‌ कोई भेदभाव नहीं होती. श्रीश्री के अनुसार कुत्ता, साबुन का टुकड़ा, दियासलाई आदि वस्तुओं को भी ‘नई कविता ’ में स्थान दिया जाएगा - "कुक्क पिल्ला, अग्गिपुल्ला, सब्बुबिल्ला-/हीनंगा चूडकू देनिनी !/कवितामयमेनोई अन्नी ! (कुत्ते का पिल्ला हो/साबुन का टुकड़ा हो/डिब्बा हो या दियासलाई/मत समझो हीन किसी को/कवितामय समझो सबको !)


कवि की दृष्टि में यह संसार एक पद्‍मव्यूह है और कविता कभी न बुझती दाह है. वस्तुतः श्रीश्री की दृष्टि विश्वमानवता की दृष्टि है. अतः वे कहते हैं कि "जो कुछ देखा, जो कुछ सुना/उसे व्यक्‍त करने निकला था मैं." (कविता ! हे कविता !)

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