शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

लाल शॉल ओढ़कर मेरे घर आई एक रिवॉलवर




तेलुगु साहित्य जगत्‌ में आरुद्रा (31 अगस्त, 1925 - 4 जून, 1998) के नाम से विख्यात भागवतुल सदाशिव शंकर शास्त्री का जन्म विशाखपट्टनम्‌ में हुआ। आरुद्रा ने कविता, कथा साहित्य, नाटक, समीक्षा, आलोचना और गीत सहित अनेक विधाओं के माध्यम से समसामियिक परिस्थितियों को सशक्‍त रूप से उकेरा है।

महात्मा गांधी से प्रभावित होकर आरुद्रा ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन (1943 - 1947) के समय इंटरमीडियट की पढ़ाई को तिलांजलि देकर रॉयल इंडियन एयरफोर्स में लिपिक के रूप में कार्यभार संभाला। तत्पश्‍चात्‌ उन्होंने संगीत पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने चेन्नै से प्रकाशित ‘आनंदवाणी ’ नामक पत्रिका के संपादक के रूप में 1947 -1948 तक काम किया। उस पत्रिका में प्रकाशित आरुद्रा और श्री श्री (श्रीरंगम्‌ श्रीनिवास राव) की कविताओं ने निद्रा मग्न जनमानस को जगाया और उन्हें सोचने पर मजबूर किया।

आरुद्रा 1943 में स्थापित ‘अभ्युदय रचयितल संघम्‌’ (अरसम्‌ - प्रगतिशील लेखक संघ) के व्यवस्थापकों में एक हैं। उन्होंने आजीवन उस संस्था की अभिवृद्धि हेतु कार्य किया। कहा जाता है कि आरुद्रा ने अपने मामा श्रीश्री तथा ‘चासो’ के नाम से विखात चागंटि सोमयाजुलु से प्रभावित होकर मार्क्सवादी दृष्‍टिकोण को अपनाया।

आरुद्रा ने ‘त्वमेवाहम्‌’ नामक प्रतीकात्मक खंड काव्य का सृजन किया। ‘त्वमेवाहम्‌’ की रचना उन्होंने 1948 में रज़ाकरों (निजाम की सेना) के हाथ रौंदी और कुचली गई स्त्री के बारे में ‘कृष्‍णा’ पत्रिका में पढ़कर प्रतिकार स्वरूप की। उन्होंने तेलंगाना निज़ाम के निरंकुश शासन पर कुठाराघात करते हुए लिखा है - "ब्रेन लो स्टनगन्‌ला/ चेट्‍लु चिट्टेलुकलु ,/ चेरभड्ड आडवाल्लु ,/ चेद पुरुगुलु/ मदमेक्किन सोल्जरलु।" (त्वमेवाहम्‌; ब्रेन में स्टेनगन के समान है/ पेड़-पौधे और चूहे/ जंजीरों में जकड़े मनुष्‍य/ सलाखों के पीछे कैद औरतें,/ दीमकों जैसे/ अंकुशहीन सैनिक।)

आगे उन्होंने यह भी लिखा है कि "एर्र शालुवा कप्पुकोनी/ मा इंटिकोच्चिंदी ओक रिवॉलवर।" (त्वमेवाहम्‌; लाल शाल ओढ़कर/ मेरे घर आई एक रिवॉलवर)

आरुद्रा ने कविता के लोकमंगलकारी रूप की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘कविता पथविहीन दग्ध मरुभूमि में शीतल जल और मीठे फल प्रदान करके आशा तथा आकांक्षा को जागृत करनेवाली शस्यश्‍यामल भूमि है।’ वे कोरी कल्पना को काव्य की उपकारिणी नहीं मानते। उन्होंने सर्वत्र यथार्थ को ही महत्व दिया है। उनके मतानुसार ‘हाथी दाँतों की मीनारों में बैठकर कल्पना करनेवाले जीवन के सही अर्थ को नहीं जान सकते हैं। यदि जीवन का सही अर्थ जानना है तो यथार्थ की भूमि पर उतरना ही होगा।’ उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई थी। परंतु भारत के अंग्रेज़ी शासन से मुक्‍त होने पर भी देशवासियों को कष्‍टों से मुक्‍ति नहीं मिली, यह देखकर उनका कवि-हृदय विकल हो उठा। कवि ने देखा कि हाशिए पर स्थित लोगों की हालत तब भी वही थी और आज भी वही है। उनका जीवन और भी दूभर होता जा रहा है। इससे उद्वेलित होकर आरुद्रा कहते हैं कि - "मना स्वातंत्रम्‌ मेडिपंडु,/ मना दरिद्रम्‌ राचपुंडु।" (हमारी स्वतंत्रता मीठा फल है,/ हमारी दरिद्रता कैंसर है।)

आरुद्रा की रचनाओं में ‘इंटिंटि पद्‍यालु’ (घर घर के पद), ‘रामुडिकि सीता एमवुतुंदि’ (राम के लिए सीता कौन हैं?), ‘गुडिलो सेक्‍स’ (मंदिर में सेक्‍स) और ‘जानपदा जावली’ (लोकसाहित्य) आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी यह भी बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने व्यावहारिक भाषा में ‘समग्रांध्र साहित्यम्‌’ (समग्रांध्र साहित्य - 13 खंड) का सृजन किया। तेलुगु साहित्य के क्षेत्र में यह कृति मील का पत्थर है।

जिस प्रकार गांधी जी अंग्रेज़ी के खिलाफ नहीं थे, बल्कि अंग्रेज़ियत के खिलाफ थे, उसी प्रकार आरुद्रा भी अंग्रेज़ियत के खिलाफ थे। उनकी कविताओं में अंग्रेज़ी - तेलुगु कोड मिश्रण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यथा - "कावाली कविता हृदयानिकि नरिशमेंट,/ कारादु एनाडु मेदडुकु पनिशमेंट" (बनाओ कविता को हृदय का नरिशमेंट,/ मत बनाओ उसे मस्तिष्‍क के लिए पनिशमेंट।)

उन्होंने लगभग 400 से अधिक फिल्मी गीतों की रचना की जो आज भी तेलुगु सिनेमा दर्शकों के मुँह से अनायास ही ध्वनित होते हैं। 500 से अधिक फिल्मों के लिए पटकथा, गीत तथा संवाद लिखने का श्रेय आरुद्रा को प्राप्‍त है। अपनी कविताओं और गीतों के माध्यम से उन्होंने दर्शकों के हृदय में अपना ऐसा स्थान बनाया जो चिरस्थायी है। वे हमेशा कहा करते थे कि "कविता कोसम्‌ नेनु पुट्टानु,/ क्रांति कोसम्‌ कलम पट्टानु।" (कविता के लिए ही मैंने जन्म लिया,/ क्रांति के लिए ही मैंने कलम साधा।)

जनमानस में चेतना जगानेवाले आरुद्रा ने 73 वर्ष की आयु में 4 जून, 1918 को अपने पाठकों से चिरविदा ली।


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