बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

कर्नाटक संगीत के ‘गायक ब्रह्‍मा’: त्यागराज




"मरुगेलरा? ओ राघवा!
मरुगेलरा? चराचरा रूपा!
परात्परा! सूर्य सुधाकरा लोचना!
अन्नी नीवनुचू नन्नंतरंगमुना
दिन्नगा वेदकी तेलुसु कोन्टिनय्या
निन्नेगाना मदिनी नेन्नुजाला नोरुल्‌
नन्नु भ्रोववय्या, त्यागराज सुत!"
(त्यागराज कीर्तन)

(हे राघव! यह आँख मिचौनी क्यों? चराचर रूप, परात्पर, सूर्य सुधाकर लोचन, तुम्हें ही सब कुछ मानकर अपने अंतरंग में ढूँढ़ने से यह समझ पाया कि तुम ही मेरे मन में बसे हो। अत: यह मुँह सिर्फ तुम्हारा ही गुन गान करेगा।)

कर्नाटक संगीत के श्रेष्‍ठ विद्‍वान, ‘गायक ब्रह्‌मा’ के नाम से प्रसिद्ध त्यागराज अथवा त्यगय्या (1767-1847) का जन्म 4 मई, 1767 को कावेरी नदी के समीप स्थित तिरुवायूर (तमिलनाडु) में हुआ था। उनके पिता का नाम रामब्रह्‌मा तथा माता का नाम सीतम्मा था। कुछ लोग त्यगराज को तमिल भाषी मानते हैं लेकिन उनकी मातृभाषा तेलुगु है। उनके पूर्वज सन्‌ 1600 में काकर्ला (प्रकाशम्‌ जिला, आंध्र प्रदेश) नामक गाँव से तमिलनाडु के तंजावूर में जाकर बस गए थे।

बचपन से ही त्यागराज श्रीराम के अनन्य भक्त थे। उन्होंने आठ साल की उम्र से तंजावूर साम्राज्य के प्रधान विद्‍वान श्री शोंठी वेंकट रमणय्या के यहाँ संगीत का प्रशिक्षण प्राप्‍त किया।

कर्नाटक संगीत के क्षेत्र में त्यागराज का योगदान उल्लेखनीय है। उनके गीत कर्नाटक संगीत के प्राण तत्व हैं। नवरस कन्नडा, बहुधारी, स्वरावली, गरुडध्वनि, कुंतलवराली और जयंतश्री जैसे अनेक नवीन रागों के वे जन्मदाता हैं। उनके पद ‘त्यागराज कृतुलु’ (त्यागराज कृतियाँ) अथवा ‘त्यागराज कीर्तनलु’ (त्यागराज कीर्तन) के नाम से विख्यात हैं। कहा जाता है कि त्यागराज ने अपने आराध्य भगवान श्रीराम की स्मृति में दस हजार कीर्तन लिखे हैं, किंतु उनमें से छह सौ कीर्तन ही विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। जैसे - ‘एन्दरो महानुभावुलु, अंदरिकी वंदनमुलु’ (सभी महानुभावों को प्रणाम), ‘मरुगेलरा? ओ राघवा!’ (यह आँख मिचौनी क्यों? हे राघव!) आदि। कविता उनका साधन है और राम भक्ति साध्य।

त्यागराज के दादा, पिता और भाई राज्याश्रय प्राप्‍त कवि थे। वे यही चाहते थे कि त्यागराज भी राजा की सेवा करें, लेकिन त्यागराज को यह स्वीकार नहीं था। वे भिक्षाटन के जरिए अपना जीवन यापन करते थे। उन्होंने तंजावूर के राजा शरभोजी के प्रस्ताव को यह कहकर विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया कि "ममता बंधनयुत नर स्तुति सुखमा?" (ममता के बंधन में जकडे़ हुए नर की स्तुति क्या सुखदायक होगी?)।

कहा जाता है कि त्यागराज के जीवन शैली से क्रोधित भाइयों ने जब उनके आराध्य की मूर्तियों को कावेरी नदी में फेंक दिए तो त्यागराज पागलों की भाँति विचलित हुए। उसी विरह स्थिति में उन्होंने अपने आराध्य का स्मरण करते हुए ‘नेनेंदु वेदुकुदुरा हरि?’ (तुम्हें कहाँ ढूँढ़ूँ, हे हरि?), ‘एन्दुदागिनाडो श्रीरामुडु?’ (श्रीराम कहाँ छिपे हैं?), ‘मरुगेलरा? ओ रागघवा!’ (यह आँख मिचौनी क्यों? हे राघव!) जैसे अनेक पदों की रचना की। जब उन्हें कावेरी नदी के तट पर भगवान की मूर्तियाँ प्राप्‍त हुईं तब उन्होंने ‘रा रा माइन्टिदाका, रामा’ (आओ मेरे घर तक, हे राम) कहकर श्रीराम की आराधना की।

उत्तर में जो स्थान तानसेन का है वही स्थान दक्षिण में त्यागराज का है। त्यागराज के पदों से प्रभावित होकर किसी विद्वान ने कहा है कि "त्यागराजुनी गीतालु दक्षिणांध्र वाड्‍.मय शृंगारमने बुरदनिंचि विकसिंचिन तामरतो समानमु।" (त्यागराज के गीत दक्षिणांध्र वाड्‍.मय के शृंगार रूपी पंक से विकसित कमल के समान हैं।) वस्तुत: त्यागराज के पद भक्ति, संगीत और साहित्य के संगम हैं।

त्यागराज ने दक्षिण के अनेक तीर्थ स्थानों का भ्रमण करके अनेक पदों की रचना की है। उनके दस हजार पदों के अतिरिक्‍त ‘सीतारामा विजयम्‌’ (सीताराम विजय), ‘नौका चरितम्‌’ (नौका की कथा) और ‘प्रह्‍लाद भक्ति विजयम्‌’ (प्रह्‍लाद भक्ति विजय) नामक तीन यक्षगान भी सुप्रसिद्ध हैं।

कर्नाटक संगीत के गायक ब्रह्‍मा त्यागराज की आत्मा 6 जनवरी, 1847 (पुष्‍य बहुला पंचमी) को परमात्मा में विलीन हुई। उनकी समाधी तिरुवायूर में कावेरी नदी तट के समीप है। तिरुवायूर कार्नाटक संगीत के त्रिक - श्याम शास्त्री, मुत्तुस्वामी दीक्षितर और त्यागराज का जन्म स्थान है। इन विद्वानों के काल को वस्तुत: ‘कर्नाटक संगीत का स्वर्ण युग’ कहा जाता है।

तिरुवायूर में हर साल त्यागराज की पुण्यतिथि अर्थात पुष्‍य बहुला पंचमी के दिन से लेकर पाँच दिनों तक ‘त्यागराज आराधन दिनोत्सवालु’ (त्यागराज आराधन महोत्सव) मनाया जाता है। संगीत के क्षेत्र में त्यगराज का नाम चिरस्मरणीय है।

2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बहुत दिनों बाद आपको फिर ब्लाग पर लौटते देख अच्छा लगा डॊक्टर सा’ब।

त्यगराया की जीवनी पर सुंदर लेख के लिए बधाई स्वीकारें॥

Gurramkonda Neeraja ने कहा…

धन्यवाद गुरूजी |