शनिवार, 16 जुलाई 2011

अज्ञेय का भाषा विमर्श


‘अज्ञेय’ के उपनाम से विख्यात सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन प्रयोगवाद और नई कविता के विशिष्‍ट कवि, क्रांतिकारी विचारक, लेखक और पत्रकार हैं। उनका जन्म 7 मार्च, 1911 को देवरिया जिले के कसिया (कशीनगर) गाँव में हुआ। वे पं.हीरानंद शास्त्री के पुत्र थे।

‘अज्ञेय’ अर्थात ‘जो जाना नहीं जा सके।’ हाँ ‘अज्ञेय’ आज भी सामान्य पाठकों के लिए ‘अज्ञेय’ ही है। उन्हें जानना - समझना आसान कार्य नहीं है। विश‍वनाथ तिवारी उन्हें ‘चिंतक रचनाकार’ (डॉ.प्रभाकर मिश्र, निबंधकार ‘अज्ञेय’, आवरण) मानते हैं तो कृष्‍ण बलदेव वैद ‘खूबसूरत नकाबपोश’ (प्रभाकर माचवे, हिंदी के साहित्य निर्माता ‘अज्ञेय’, पृ.6) मानते हैं। अज्ञेय के कई उपनाम हैं। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन नाम वे गद्‍य लेखक तथा संपादक के नाते प्रयुक्‍त करते थे जबकि सृजनात्मक लेखन ‘अज्ञेय’ के नाम से करते थे। उनके अन्य उपनाम हैं - श्रीवत्स, कुट्टिचातन, गजानन पंडित, डॉ.अबुल लतीफ और समाजद्रोही नं.1 आदि।

वस्तुतः अज्ञेय की रचनाएँ उनके संवेदनशील कवि व्यक्‍तित्व और वैचारिक मानस की संवाहिका है। उनका चिंतन पक्ष समृद्ध एवं मौलिक है। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जनमानस में चेतना जगाने के साथ साथ भारतीय संस्कृति और सभ्यता को उजागर किया है। उन्होंने मानवीय मूल्यों की कसौटी पर व्यक्‍ति, समाज, संस्कृति और साहित्य को कसा है। इसलिए वे कहते हैं "दिन है/ जय है/ यह बहु-जन-की:/प्रगति,/ लाल रवि,/ ओ जन जीवन/ लो यह/ मेरी/ सफल साधना/ तन की/ मन की -" (प्रथम किरण)।

अज्ञेय की कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और निबंधों पर काफी विचार किया गया है लेकिन उनके भाषा चिंतन की ओर कम लोगों का ध्यान आकृष्‍ट हुआ है। 

यह सर्वविदित है कि भाषा संप्रेषण का सशक्‍त साधन है और सामाजिक धरोहर भी। रचनाशीलता और सृजनशीलता का मूलाधार भी भाषा ही है। अतः भाषा विहीन समाज और व्यक्‍ति की कल्पना करना असंभव है। इसलिए अज्ञेय कहते हैं कि "भाषा मोक्षदा है : वह मनुष्‍य को ही नहीं, सुख को भी मुक्‍त करती है।" (त्रिशंकु, पृ.24)। भाषा के बारे में अज्ञेय का विचार स्पष्‍ट है। वे कहते हैं कि "भाषा कल्पवृक्ष है, जो उससे आस्थापूर्वक माँगा जाता है, भाषा वह देती है। उससे कुछ माँगा ही न जाय क्योंकि वह पेड़ से लटका हुआ नहीं दीख रहा है, तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता।" (अद्‍यतन, पृ.14)|

भाषा की सहायता से ही मनुष्य अपने भावों, अनुभूतियों और विचारों का आदान-प्रदान करता है। भाषा के अभाव में वक्‍ता और श्रोता के बीच संप्रेषण संभव ही नहीं है। अतः अज्ञेय मानते हैं कि "भाषा मूलतः वह चीज होती है जो एक और अनेक के बीच एक समान प्रतिज्ञा पर निर्भर होती है।" (आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.24-25)

कहा जाता है कि भाषा शक्‍तिशाली साधन है। इसमें वह शक्‍ति निहित है जिसके माध्यम से दो दिलों को जोड़ सकते हैं और तोड़ भी सकते हैं। अज्ञेय के अनुसार भाषा की तीन शक्‍तियाँ हैं -"अपनी अस्मिता की पहचान, मूल्यबोध की संभावना और यथार्थ की पहचान।" (स्रोत और सेतु; पृ.83)|  

भाषा ही मानव अस्मिता का मूलाधार है। वस्तुतः मानव जैविक जंतु है। भाषा के माध्यम से ही वह समाज-सांस्कृतिक प्राणी कहलाता है। अतः भाषा मनुष्‍य को पहचान प्रदान करती है। साथ ही वह यथार्थ के साथ बँधी हुई है और मानवीय मूल्यों को भी उजागर करती है। अज्ञेय ने यह स्पष्‍ट किया है कि "‘मैं’ की पहचान भाषा के साथ बँधी हुई है, तो स्वाभाविक है कि यथार्थ की पहचान भी भाषा के साथ बँधी हुई है।" (आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.22)।

मनुष्‍य भाषा के माध्यम से संस्कारित होता है और समाज में अपनी एक सुनिश्‍चित पहचान बनाता है। उसके लिए समाज से और अपने भाषा समुदाय से कटकर जीना संभव नहीं है। चाहे आम आदमी हो या साहित्यकार, अपने परिवेश को उकेरता है। अतः परिवेश की महत्ता को स्पष्‍ट करते हुए अज्ञेय ने लिखा है कि "आज का लेखक इस प्रकार अपने परिवेश से दबा है - अपने परिवेश के उस भाग से जो कि वह स्वयं है और जितना ही अच्छा लेखक है, उतना ही अधिक वह अपना परिवेश है... संक्षेप में लेखक के नाते यही मेरी परिवेश की समस्या और मेरा संकट है। मैं, लेखक, एक आत्यन्तिक विभूति, जिसका काम है मूल्य की खोज और प्रतिष्‍ठा। खड़ा हूँ तो वहाँ जहाँ मैं स्वयं भी केवल परिवेश हूँ और मूल्य भी केवल परिवेश है।" (आल-वाल; पृ.21)

भाषा की खोज में वस्तुतः रचनाकार स्थूल से सूक्ष्‍म की ओर अग्रसर होता है। इस यात्रा में उसकी मूल चिंता यही होती है कि अभिप्रेत अर्थ को वह ठीक तरह से अपने पाठकों तक पहुँचा सके। इसके लिए वह बार बार भाषा को परिमार्जित करता है। इस संबंध में अज्ञेय की अवधारणा सप्ष्‍ट है -"मेरी खोज भाषा की खोज नहीं है, केवल शब्दों की खोज है। भाषा का मैं उपयोग करता हूँ। उपयोग करता हूँ लेखक के नाते, कवि के नाते और एक साधारण सामाजिक मानव प्राणी के नाते, दूसरे सामाजिक मानव प्राणियों से साधारण व्यवहार के लिए। इस प्रकार एक लेखक के नाते मैं कला सृजन के माध्यमों में सबसे अधिक वेध्य माध्यम का उपयोग करता हूँ - ऐसे माध्यम का जिसको निरंतर दूषित और संस्कारच्युत किया जाता रहता है। अथच उसका उपयोग मैं ऐसे ढंग से करना चाहता हूँ कि वह नए प्राणों से दीप्‍त हो उठे।" (आल-वाल; पृ.10-11)।

मानव अनुकरण के माध्यम से अनायास ही भाषा सीखता है और उसका प्रयोग करता है। बोलते समय वह व्याकरणिक नियमों पर ध्यान नहीं देता। कभी कभी वह भाषा का मिश्रित रूप भी प्रयोग करता है। अज्ञेय अच्छी भाषा को अपने आप में एक सिद्धि मानते हैं - "मैं उन व्यक्‍तियों में से हूँ - और ऐसे व्यक्‍तियों की संख्या शायद दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है जो भाषा का सम्मान करते हैं और अच्छी भाषा को अपने आप में एक सिद्धि मानते हैं।" (आत्मनेपद; पृ.242)

भाषा का प्रयोग भी मनुष्‍य किसी प्रयोजन के लिए करता है। चूँकि मनुष्‍य जो भी काम करता है उसके पीछे कुछ-न-कुछ प्रयोजन अवश्‍य होता है। चाहे व्यक्‍तिगत प्रयोजन हो या सामाजिक प्रयोजन। बिना किसी उद्‍देश्‍य के वह कुछ भी नहीं करता। इस संदर्भ में अज्ञेय कहते हैं कि "व्यक्‍तिगत प्रयोजन तो बिना भाषा के ही पूरे हो जाते हैं लेकिन सामाजिक प्रयोजन के लिए भाषा से काम लेते हैं। निजी प्रयोजनों में से अधिकतर ऐसे हैं जो कि बिना भाषा के सिद्ध हो जाते हैं। क्योंकि दूसरों से जो प्रयोजन होता है उसके लिए भाषा काम आती है।" (आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.24-25)|

अज्ञेय वस्तुतः शब्द को अधिक महत्व देते हैं। चूँकि अनुभूति की अभिव्यक्‍ति शब्दों के माध्यम से ही संभव है। वे शब्दों की गरिमा में विश्‍वास रखते हैं। अतः वे स्पष्‍ट करते हैं कि "भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसमें आत्यंतिक या स्वतंत्र अस्तित्व रखनेवाला कुछ भी नहीं है। शब्द का आत्यंतिक या अपौरुषेय अर्थ नहीं है : अर्थ वही है, उतना ही है जितना हम उसे देते हैं बल्कि देने की प्रतिज्ञा कर लेते हैं, दूसरे शब्दों में (‘दूसरे शब्दों में कहना’ ही अर्थ का आरोप है।) शब्द का अर्थ एक सर्वथा मानवीय आविष्‍कार है, तो एक समय है, जितने अर्थ हैं सभी तदर्थ हैं।" (आत्मनेपद; पृ.163)।

अज्ञेय वस्तुतः शब्द शिल्पी ही हैं। इस में दो राय नहीं है। वे शब्द अर्थात भाषा से तमाशा न खड़ा करके उसे कला की उदात्त भावभूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं। "निरी वाक्‍चातुरी मेरे निकट कोई बड़ी बात नहीं है और बात बात में बहुत कुछ नहीं मानता। वह भाषा की मदारीगीरी है, और मदारी का तमाशा देखने में क्षण भर रम जाना एक बात है, उसे कला के सिंहासन पर बिठाना दूसरी बात।" (आत्मनेपद; पृ.242)।

अज्ञेय कुशल चितेरे हैं। वे अपने तीर जैसे तेज शब्दों के माध्यम से राजनीतिज्ञों पर करारा व्यंग्य भी करते हैं। कुछ लोग विषय के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं, लेकिन बेझिझक धड़ल्ले से अपनी बात कर जाते हैं। उनके पास ‘रेडीमेड जवाब’ होते हैं। ऐसों के बारे में अज्ञेय कहते हैं कि उन्हें "जानकारी की कमी से कोई झिझक नहीं होती, बल्कि जो जितना कम जानता है उतना ही अधिक धड़ल्ले से अपनी बात कर जाता है।" (अद्‍यतन; पृ.126)।

वस्तुतः समाज में भाषा का प्रयोग दो तरह से होता है। एक तो सामान्य संप्रेषण के रूप में जिसके माध्यम से लोग बातचीत करते हैं। भाषा समुदाय में आमतौर पर सामान्य संप्रेषण की भाषा से ही काम लिया जाता है। शिक्षित, अशिक्षित, उच्च, मध्य और निम्न वर्ग सभी इसी सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं। इसे ही समाज भाषाविज्ञान ने ‘सामान्य प्रयोजनों की भाषा’ माना है। अर्थात दैनिक जीवन की आवश्‍यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयुक्‍त भाषा रूप। इसमें विविधता होती है चूँकि परिवार, समाज, परिवेश, संपूर्ण देश इसमें समाहित है। भाषा का दूसरा रूप इससे भिन्न है। यह रूप विशिष्‍ट प्रयोजन पर आधारित है अतः इसे ‘प्रयोजनमूलक भाषा’ कहते हैं। भाषा के प्रयोजन को स्पष्‍ट करते हुए अज्ञेय कहते हैं कि "भाषा हमेशा से साधारण प्रयोजनों और कर्म व्यापारियों का माध्यम रही है, इस मामले में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं हुआ है। लेकिन जहाँ पहले ऐसी प्रयोजनवादी भाषा में भी एक पर्यायत्व के शब्द और अर्थ के स्पष्‍ट और संप्रेषण अभेद को, एक मूल्य माना जाता था, वहाँ आज ऐसा नहीं जान पड़ता। यह बात केवल शिष्‍ट आचरण के जाने हुए और इसलिए परस्पर सुबोध पाठकों के, पारंपरिक कूटनीतिक व्यापारों के बारे में नहीं कही जा रही है।" (अद्‍यतन; पृ.19)।

अज्ञेय आगे यह कहते हैं कि यदि प्रयोजनवती भाषा को ही अंतिम सीमा मानकर उसी भाषा में रचना करते रहेंगे तो नई रचना का सृजन नहीं होगा। इससे शब्दों का संस्कार नहीं होगा और संवेदन की क्षमता भी नहीं बढ़ेगी -"अगर हम ‘प्रयोजनवती’ भाषा को अपनी अंतिम सीमा मानकर उसी भाषा में, उन्हीं अर्थों के भीतर उसी ‘समय’ में रचना करते हैं तो फिर आवृत्ति ही आवृत्ति होती है; नई रचना नहीं होती, न शब्दों का नया संस्कार होता है और न हमारे संवेदन की क्षमता बढ़ती है। अच्छी कविता का काम है संवेदन की क्षमता बढ़ाना, मनुष्‍य की अपनी भी नई रचना करना।" (आँखों देखी और कागद लेखी, पृ.26)|

अज्ञेय अपनी बात को ‘सामान्य भाषा’ में अभिव्यक्‍त करते हैं। चाहे तत्सम शब्द प्रयोग हो या तद्‍भव या सघन वाक्य रचना, उनकी भाषिक विशिष्‍टता अपनी एक अलग पहचान बनाए रखती है। अज्ञेय यह कहते हैं कि "भाषा अथवा शब्द का संस्कार व्याकरण शुद्धि से अधिक बड़ी और गहरी बात है।" (आत्मनेपद, पृ.164)। वस्तुतः अज्ञेय की भाषा में मर्म की कई परतें हैं। पाठक उन मार्मिक परतों में निहित अर्थ को न समझ पाने के कारण भ्रम में पड़ जाते हैं।

अज्ञेय ने बार बार भाषा के बारे में अपने विचार व्यक्‍त किए हैं। उनका दृष्‍टिकोण हमेशा ही व्यावहारिक एवं स्पष्‍ट रहा है। उनकी मान्यता है कि सहज भाषा ही वास्तव में सही भाषा है। अर्थात भाषा में सहजता होना जरूरी है -"भाषा का संस्कार सही वही होता है जो इतना गहरा हो जावे कि लिखते बोलते समय ही नहीं; स्वप्न देखते समय भी यह प्रश्‍न न उठे कि भाषा सही है या नहीं। सही भाषा जब सहज भाषा हो जाए तभी वह वास्तव में सही है। इस सहजता की साधना हम हिंदी लेखकों ने यथेष्‍ट नहीं की, ऐसा मुझे लगता है।" (आत्मनेपद; पृ.164)।

अज्ञेय को यह पीढ़ा बराबर सालती रही कि पिता की भ्रमणशील वृत्ति के कारण उन्हें कहीं एक जगह ठिककर लोक भाषा और जन भाषा के बोलीगत मुहावरे को आत्मसात करने का अवसर नहीं मिला -"मुझे सभी कुछ मिला पर सब बेपेंदी की। शिक्षा मिली, पर उसकी नींव भाषा नहीं मिली; आजादी मिली लेकिन उसकी नींव आत्मगौरव नहीं मिला; राष्‍ट्रीयता मिली लेकिन उसकी नींव ऐतिहासिक पहचान नहीं मिली।" (अद्‍यतन; पृ.83)। उनका यह तब और भी अधिक गहरा हो उठता है जब वे भाषा को रचनाशीलता के स्रोत के रूप में पहचानने का आग्रह करते हैं -"भाषा हमारी शक्‍ति है, उसको हम पहचानें; वही रचनाशीलता का उत्स है व्यक्‍ति के लिए भी और समाज के लिए भी।" (स्रोत और सेतु; पृ.99)। इसमें संदेह नहीं कि अज्ञेय अद्वितीय शब्द शिल्पी हैं। भाषा में निहित विविध प्रकार की सर्जना की संभावनाओं को वे भली प्रकार पहचानते भी हैं और उद्‍घाटित भी करते हैं। इसके बावजूद वे यह बताना नहीं भूलते कि उनकी शिक्षा-दीक्षा ने उन्हें हिंदी का मानक रूप भर प्रदान किया। इसीमें उनकी साहित्य भाषा की सीमा भी निहित है और विशेषता भी -"एक तरह से मेरी भाषा में सीमा और विशेषता भी आप पहचान सकते हैं। आरंभ से मेरी शिक्षा हिंदी में हुई - उस हिंदी में जिसका मैं इस समय उपयोग कर रहा हूँ : जिसमें पुस्तकें मिली जाती हैं।" (आँखों देखी और कागद लेखी; पृ.19)। वे आगे कहते हैं कि भाषा का संबंध अस्मिता से है और अस्मिता की आक्रांत होने के कारण भाषा भी आक्रांत होती है -"इस सुविधा और सौभाग्य के बावजूद कि मैं शुरू से ही हिंदी का व्यक्‍ति रहा, मैं यह समझता रहा कि भाषा अस्मिता के साथ जुड़ी हुई है और मेरी भाषा आक्रांत नहीं है। ‘हिंदी को खतरा है, हम उसे बचाएँ’ - यह नारा मेरी समझ में कभी नहीं आया। ‘हमें खतरा है जिससे हिंदी हमें बचा सकती है’ - यह बात ज्यादा सही जान पड़ती रही। भाषा इसलिए आक्रांत है कि अस्मिता आक्रांत है।"(वही; पृ.23)।

भाषा ऐसा सशक्‍त साधन है जो परंपरा, अनुभव और अध्ययन से प्राप्‍त शब्द संपदा पर आधारित है। वस्तुतः भाषा का प्रारंभ समाज के गठन के साथ ही हुआ है और समाज का गठन भाषा के प्रारंभ के साथ। अर्थात समाज और भाषा एक दूसरे के पूरक हैं। इसलिए अज्ञेय कहते हैं कि राष्‍ट्रत्व के बोध के विस्तार के साथ भाषा का विस्तार होगा -"भाषा राष्‍ट्र की देन होती है। देश में अगर एक राष्‍ट्र समाज नहीं है तो उसकी एक भाषा भी नहीं होगी। जितनी छोटी या बड़ी परिधि में राष्‍ट्रत्व का बोध होगा उतनी ही परिधि  भाषा की भी होगी, राष्‍ट्रत्व के बोध का जितना विस्तार होगा उतना ही भाषा का भी।" (त्रिशंकु; पृ.24)|

पहले भी संकेत किया जा चुका है कि समाज में भाषा से ही मनुष्‍य का पहचान होता है। अर्थात मनुष्‍य को सही अर्थ में आधुनिक बनने के लिए उसे सही भाषा की जरूरत है। चूँकि भाषा के माध्यम से ही वह संस्कारी होता है। आज के बुद्धिजीवी वर्ग ने ‘आधुनिकता’ को कई तरह से परिभाषित किया है। पर अज्ञेय यह मानते हैं कि आधुनिकता एक प्रक्रिया है, अंस्कारवान होने की एक क्रिया -"आधुनिकता को लोगों ने अलग अलग अर्थ दिए हैं। मेरी दृष्‍टि में आधुनिकता एक अनगढ़ चीज है। वह एक सिद्ध स्थिति नहीं है, एक प्रक्रिया है। संस्कारवान होने की क्रिया को ही मैं आधुनिकता मानता हूँ। जो संस्कारी हो चुका है और अब स्थिर है वह मेरी दृष्‍टि में आधुनिक नहीं है।" (लिखि कागाद कोरे; पृ.67)।

अज्ञेय की दृष्‍टि में हिंदी हमेशा ही आधुनिक रही है। हिंदी में जड़ता नहीं है, वह गतिशील है। वह जो ग्राह्‍य है उसे ग्रहण कर लेती है और जो त्याज्य है उसे त्याग देती है। इसलिए वह जनमानस के साथ जुड़ी हुई है - "मेरी दृष्‍टि में हिंदी सदा से आधुनिक रही है। सिंधु से ब्रह्‍मपुत्र तक सारा क्षेत्र हिंदी का है, चाहे आज उनके दोनों छोर देश से बाहर चले गए हैं। यह देश भाषाओं और संस्कृतियों के संगमों का देश है। हिंदी उन संगमों से ही विकसित हुई है। अतः वह संगमों की भाषा है, विद्रोहों की भाषा है। इसी भाषा ने सारे देश में भारतीय संस्कृति को बनाए रखा, भारतीयता के बोध को जीवित रखा। युद्ध होते रहे, फिर भी भारतीय संस्कृति नाम की चीज आगे बढ़ती रही। हिंदी उसकी भाषा रही। हिंदी प्रदेश से प्रवृत्तियाँ उठीं और सारे देश में फैलीं। दूसरे भाषा क्षेत्रों में भी जो प्रसारणीय हुआ वह हिंदी में गया और हिंदी से छनकर वितरित हुआ। किसी दूसरी भाषा ने यह काम नहीं किया। हिंदी अब भी यह काम कर रही है।" (लिखि कागद कोरे; पृ.67-68)।

हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है। नफा़सत तो वस्तुतः सामाजिक गुण है और यह भाषा का आत्यन्तिक गुण नहीं है। अतः कोई भी भाषा इस गुण को पा सकती है। लेकिन हिंदी में निहित नाद सौंदर्य आत्यन्तिक है। वह भाषा की निजी पहचान है। इसलिए अज्ञेय कहते हैं कि "उर्दू बड़ी नफ़ीस ज़बान है। लेकिन उर्दू की नफ़ासत की बात करते वक्‍त कुछ बातें और भी याद रखने की है। नफ़ासत भाषा का आत्यन्तिक गुण नहीं है, एक सामाजिक गुण है। अर्थात कोई भी भाषा उसे पा सकती है अगर उस भाषा समाज में उसका इतना ऊँचा मूल्य हो और अगर वह समाज इसलिए उस दिशा में विकास करे। लेकिन नादगुण आत्यन्तिक गुण है। हिंदी का नाद सौंदर्य उर्दू में नहीं है, कभी नहीं रहा, न उस दिशा में उसने विशेष उन्नति की है।" (शाश्‍वती; पृ.41-42)।

वैश्‍वीकरण के कारण परिस्थितियों में बदलाव आए। मनुष्‍य ने अपनी आवश्यकता हेतु मशीनों का आविष्‍कार किया लेकिन मशीनी युग ने संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति को इतना बदल दिया कि मनुष्‍य यांत्रिक पुर्जा बन गया है। इसलिए अज्ञेय कहते हैं कि "आधुनिक युग मशीन युग है। मशीन के विस्तार के प्राचीण समाज व्यवस्था और संस्कृति नष्‍ट हो रही है। इसका परिणाम है कि पुरानी संस्कृति के मरने के साथ नई के मान नहीं बन रहे, हमारा मान और आत्मा संकुचित हो रहे हैं और हम यथार्थता का सामना करने के अयोग्य बनते हैं। दूसरी ओर, मशीन युग के साथ जो ‘मास प्रोडक्‍शन’ आया है, उसके लिए विज्ञापनबाजी आवश्यक है, और साहित्य को सस्ता, घटिया और एकरस बनाने का कारण बनती है।" (त्रिशंकु; पृ.23)। 

‘मास प्रोडक्‍शन’ के आगमन के साथ साथ साहित्य की ओर लोगों की रुचि कम होती जा रही है। यह सर्वविदित है कि किसी भी संस्कृति का मूलाधार भाषा होती है और भाषा का चरम उत्कर्ष उसके साहित्य में प्रकट होता है। संस्कृति का पतन जीवन का पतन है। मशीन युग ने हमारे जीवन को सस्ता और अर्थहीन बना दिया है। इसके साथ ही भाषिक प्रयोग भी। भाषा की गुणवत्ता गिरने लगी है। शब्द अर्थात भाषा के सस्तेपन पर चिंता व्यक्‍त करते हुए अज्ञेय कहते हैं कि "केवल शब्द ही सस्ता नहीं हुआ है, उसका प्रयोग करनेवालों का सामाजिक जीवन भी उतना ही सस्ता हुआ है, क्योंकि प्रेम का नगर और घर और मंदिर और नदी तो हैं लेकिन प्राण स्रोत सूख गया है और यदि वह कहीं फूट निकलना भी चाहे तो कम से कम इस मार्ग से नहीं बह सकता - वह गहरा अर्थ इस शब्द से सदा के लिए अलग हो गया है।" (त्रिशंकु; पृ.21)।

यह नहीं कहा जा सकता कि भाषा का सस्तापन अकारण हो गया है। इसका मूल कारण है परिस्थितियों की मजबूरी। चूँकि यह युग उत्पादन का युग है तथा मुनाफे के सिद्धांत पर आश्रित है। फलतः ज्यादा उपज के मार्ग ढूँढ़े जा रही हैं। इसके कारण प्राचीन सामाजिक व्यवस्था नष्‍ट हो रही है। पुराने मूल्य टूट रहे हैं। साथ ही साहित्य और कला की ओर आकर्षण कम होता जा रहा है। अतः अज्ञेय आक्रोश व्यक्‍त करते हैं कि "हमें समझ लेना चाहिए कि हमारा उद्धार मशीन से नहीं होगा, प्रचार विज्ञापन से नहीं होगा, लेक्‍चर और विवाद और कवि सम्मेलनों से नहीं होगा। अगर उद्धार का उपाय कोई है, तो वह संस्कृति की रक्षा और निर्माण की चिर जागरूक चेष्‍टा और उस चेष्‍टा की आवश्‍कता में अखंड विश्‍वास का ही मार्ग है।" (त्रिशंकु; पृ.24)|

अज्ञेय भाषा को परंपरा, संस्कृति और यथार्थ को पहचानने का माध्यम स्वीकार करते हैं। संस्कारवान और शुद्ध भाषा की खोज में सतत अन्वेषणशील दिखाई देते हैं। उन्होंने भाषा के रूपों और प्रयोगकर्ताओं की मनःस्थिति की भी पड़ताल की हैं। उनका भाषा चिंतन साहित्यिक भाषा तक सीमित न होकर व्यक्‍ति भाषा और समाज भाषा के विवेचन-विश्‍लेषण तक व्याप्‍त है।

किसी व्यक्‍ति का पारिवारिक और सामाजिक जीवन संस्कृति से ही परिलक्षित होता है। हमारे जीवन का ढंग ही हमारी संस्कृति है। अतः यह जीवन की आवश्‍यकता है। जैसा कि पहले भी संकेत किया गया है, अज्ञेय की विचारधारा से यह स्पष्‍ट है कि भाषा का मूलाधार संस्कृति है तो संस्कृति का मूलाधार मानवता है और साहित्य इसी मानवता की चरम साधन है। संस्कृति के संबंध में अज्ञेय की मान्यता है कि "संस्कृति न केवल  बुर्जुआ है, न प्रगति विरोधी है, वह समाज को स्थायित्व देती है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह उसे स्थितिशील बनाती है। संस्कृति एक कब्र नहीं है, वह तो जीवन है जिस पर पैर टेके बिना प्रगति हो ही नहीं सकती।" (संस्कृति : यहाँ, वहाँ या कब्र में?; पृ.28)। 

अज्ञेय ने अपने लेखन में अनेक प्रकार से परंपरा और भारतीय संस्कृति की व्याख्या की है। वे इस बात को स्पष्‍ट करते हैं कि "कहने के लिए कि हम परंपरा से मुक्‍त हैं, भाषा उपयोग करना  कितनी बड़ी विडंबना है। भाषा हमारी सबसे पुरानी, सबसे कडी, अनुल्लंघ्‍नीय सांस्कृतिक रूढ़ी है : अपने दावे के लिए उसका सहारा लेना - और दावे के लिए भाषा का सहारा अनिवार्य है। -सिद्ध कर देता है कि दावा बेमानी है।" (भवन्ती; पृ.25)। अक्सर यह सुनने को मिलता है कि भाषा का अवमूल्यन हो रहा है। इस संदर्भ में अज्ञेय की दो टूक टिप्पणी बड़े महत्व की है। उनका विचार है कि "जब तक संस्कृति की एक समग्र भावना बनी रहती है तब तो भाषा का अवमूल्यन नहीं होता। पूरी संस्कृति का अवमूल्यन होता है इसलिए भाषा का अवमूल्यन होता है।" (स्रोत और सेतु; पृ.91)।

भाषा ही वह साधन है जिसके माध्यम से मानव समाज - सांस्कृतिक प्राणी कहलाता है। भाषा के अभाव में वह केवल जैविक जंतु है - "और यों हम भाषा के गुलाम हैं। भाषा मनुष्‍य की सबसे मूल्यवान सृष्‍टि है क्योंकि सच्चाई को पहचानने, अपना लेने, ‘नाम देने’ का वही एक साधन हमारे पास है और वही हमें पशु से अलग करती है जिसके आस पास चीजें हैं नाम नहीं है।" (भवन्‍ती;पृ.64)। अज्ञेय भाषा और समाज के आंतरिक एवं बाह्‍य संबंधों पर सूक्ष्मता से विचार करते हुए कहते हैं कि "मेरी दृष्‍टि में भाषा मात्र मनुष्‍य होने की पहचान और शर्त है। भाषा के बिना मनुष्य नहीं होता, पशु से मनुष्य के विकास में भाषा ही वह सीढ़ी है जिसको पार करके वह मनुष्‍यत्व प्राप्‍त करता है।" (स्रोत और सेतु; पृ.80)। वे आगे यह भी स्पष्‍ट करते हैं कि "बिना इसके किसी समाज में अपनी अस्मिता की पहचान नहीं हो सकती। सबसे पहले भाषा अपने आप को पहचानने का साधन है।" (वही ; पृ.83)|

इस बात की ओर पहले ही ध्यान आकृष्‍ट किया गया है कि अज्ञेय के अनुसार भाषा की तीन शक्‍तियाँ हैं - अपनी अस्मिता की पहचान, मूल्यबोध की संभावना और यथार्थ की पहचान। इसी तथ्य पर आधारित अज्ञेय के भाषा चिंतन के कतिपय सूत्र वाक्य द्रष्‍टव्य हैं -

"भाषा संस्कृति का सर्वाधिक शक्‍तिशाली और समृद्ध उपकरण है क्योंकि इस संगीत और संबंध के बोध का सबसे महत्वपूर्ण वाहक है। वस्तुतः हम जो भाषा बोलते हैं, उसके द्वार चुन लिए जाते हैं, एक निर्दिष्‍ट स्थान और धर्म पा लेते हैं और निबाहने को स्वतंत्र हो जाते हैं।" (अद्‍यतन; पृ.17)|


"अगर हमें भाषा के अवमूल्यन की चिंता है तो वास्तव में हमें संस्कृति के अवमूल्यन की चिंता होनी चाहिए। अगर हमारा ध्यान उधर नहीं है तो सिर्फ भाषा की चिंता करके हम कहीं नहीं पहुँचेंगे।" (स्रोत और सेतु; पृ.89)|


"जिस आविष्कार को आज की भाषा में मीडिया कहा जाता है, जहाँ से उसका आरंभ हुआ है, जहाँ से व्यापक संचार माध्यमों का विस्तृत लोक संपर्क, प्रचार विज्ञापन या मास कांटेक्‍ट के लिए इन दूर प्रभावी साधनों का उपयोग होने लगा है, वहीं से भाषा का अवमूल्यन आरंभ होता है। क्योंकि व्यापक जन संपर्क के नाम पर वास्तव में कुछ अन्य चीजों का, या सही बात कहें तो कुछ गहरे मूल्यों का अवमूल्यन कर रहे होते हैं।" (स्रोत और सेतु; पृ.87)|


"भाषा का उपयोग जितना ही व्यापक और गहरा होता है उतनी ही भाषा समृद्धतर होती है और अपने व्यवहर्ता को समृद्धतर बनाती है। और भाषा का ऐसा प्रयोग काम चलाऊ, आनुषंगिक, आपद्धर्मी प्रयोग नहीं है, वैसा प्रयोग नहीं है जो शासक के या लोक संपर्क कर्मचारियों के या व्यवसायियों के या पंडितों के द्वारा भी किया जा सकता है। भाषा का व्यवहार समृद्धि देनेवाला तभी होता है जब उसके साथ लगाव (कमिटमेंट) उसी भाषा के माध्यम से अनुभव के प्रति लगाव होता है। ऐसी ही भाषा, ऐसे ही प्रयुक्‍त भाषा अनुभव की भाषा संस्कृति का और अस्मिता का उपकरण होती है।" (अद्‍यतन; पृ.17)|


"इस सत्य से कोई किनारा नहीं है कि आज के संसार में मानव मन का घर्षण भाषा के घर्षण से आरंभ होता है, और आज भाषा मात्र सारे संसार में अवज्ञ और बलात्कार का शिकार हो रही है।" (अद्‍यत; पृ.18)।


"भाषा के द्वारा हम यथार्थ की एक नए ढंग की पहचान कर सकते हैं, इसलिए यह कहना अनुचित न होगा कि भाषा संस्कृति की बुनियाद होती है।" (स्रोत और सेतु; पृ83)।


"भाषा बदलती है तो भाषा के परिवर्तन भाषा में से ही निकलते हैं, भाषा एक सामाजिक और युगीन समय है, जिससे आगे तो बढ़ा जा सकता है, पर सीढ़ी-दर-सीढ़ी और समाज को अपने साथ लेते हुए ही। भाषा को आमूल उखाड़कर उसकी जगह नई भाषा हम नहीं दे सकते, नए शब्द, नए मुहावरे, नए प्रयोग हम कर सकते हैं तो एक जाने हुए उभयपक्ष द्वारा स्वीकृत ढाँचे के भीतर ही।" (युग संधियों पर; पृ.42)|

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1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

सच है... इतना कुछ पढ़ने के बाद भी ‘अज्ञेय’ अज्ञेय ही रहेंगे। उनके बारे में जितना कुछ पढ़ा उतना कम उन्हें जाना॥