शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

भाषा की सामाजिक भूमिका के व्याख्याकार प्रो. दिलीप सिंह


भाषा की सामाजिक भूमिका के व्याख्याकार प्रो. दिलीप सिंह

हिंदी भाषाविज्ञान को एक सुनिश्चित रूप प्रदान करने और समृद्ध करने वाले भारतीय भाषा चिंतकों डा.धीरेंद्र वर्मा, डा.रामविलास शर्मा, डा.देवेंद्रनाथ शर्मा, डा.विद्यानिवास मिश्र, डा.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, डा.सुरेश कुमार, डा.शिवेंद्र किशोर वर्मा, डा.राजाराम मेहरोत्रा, डा.भोलानाथ तिवारी, डा.कैलाशचंद्र भाटिया और डा.हरदेव बाहरी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले हिंदी भाषा चिंतक के रूप में डा.दिलीप सिंह (1951) का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है. उन्होंने व्यावहारिक स्तर पर भाषा की सामाजिक भूमिका के व्याख्याकार के रूप में अपना विशेष स्थान बनाया है. 

आधुनिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों का हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के संदर्भ में अनुप्रयोग करना ही वस्तुतः भाषा चिंतक प्रो.दिलीप सिंह की मुख्य चिंता है. उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से आधुनिक भाषाविज्ञान और साहित्य चिंतन के बीच की दूरी को पाट कर पाठ विश्लेषण की अपनी मौलिक प्रणाली का प्रतिपादन किया है. इसीलिए उन्हें समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, पाठ विश्लेषण, अनुवाद चिंतन और भाषा शिक्षण के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के क्षेत्र को उन्होंने अपनी लेखनी से समृद्ध किया है. उनकी मौलिक पुस्तकों में व्यावसायिक हिंदी(1983), भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण(2007), पाठ विश्लेषण(2007), भाषा का संसार(2008), हिंदी भाषा चिंतन(2009), अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ(2010) और अनुवाद की व्यापक संकल्पना(2011) उल्लेखनीय हैं. उन्होंने अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है. उनमें समसामयिक हिंदी कविता(1981), शैलीतत्व : सिद्धांत और व्यवहार(1988), अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य(स्मारिका,1999), साहित्येतर अनुवाद विमर्श(2000), भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन(2000), अनुवाद : नई पीठिका, नए संदर्भ(2001), प्रेमचंद की भाषाई चेतना(2006), अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य(2009) आदि सम्मिलित हैं. इसके अतिरिक्त प्रो.रवेंद्रनाथ श्रीवास्तव की समग्र रचनाओं का भी उन्होंने संपादन किया है. 

प्रो.दिलीप सिंह यह मानते हैं कि आज के बदलते परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का उद्देश्य प्रयोजनपरक होना चाहिए. अतः उन्होंने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम को प्रयोजनपरक बनाया. 1983 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘व्यावसायिक हिंदी’ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है. इस पुस्तक का लेखन द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी भाषा और साहित्य शिक्षण संबंधी सामग्री के अभाव की पूर्ति करने के लिए किया गया. यह पुस्तक प्रकार्यात्मक हिंदी शिक्षण की उन आरंभिक पुस्तकों में से है जो यह बताती हैं कि हिंदी के किस प्रयोजनमूलक रूप को किस परिप्रेक्ष्य में पढ़ाया जाए. यह पुस्तक उदाहरणों के साथ यह प्रतिपादित करती है कि प्रयोजनमूलक भाषा, भाषा का वह रूप है जिसका प्रयोग किसी विशेष अवसर या कार्य के लिए हो तथा जिसका ज्ञान अभ्यास या विशेष शिक्षा द्वारा प्राप्त किया जाए. स्पष्ट है कि आरम्भ में ही प्रो.सिंह ने प्रयोजन और निष्प्रयोजनमूलक भाषा की गलत बहस को रद्द कर दिया था. 

प्रायः देखा जाता है कि भाषावैज्ञानिक अपने आपको साहित्य से और साहित्यकार एवं आलोचक भाषाविज्ञान से दूर रखते हैं. लेकिन प्रो.दिलीप सिंह यह मानते हैं कि साहित्यिक कृति में भाषा अध्ययन की तथा भाषा में सर्जनात्मकता की अनंत संभावनाएँ निहित हैं. 2007 में प्रकाशित पुस्तक ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ इसी बात की पुष्टि करती है कि भाषा के माध्यम से साहित्य और संस्कृति को सीख सकते हैं और सिखा भी सकते हैं. साहित्यिक पाठ वस्तुतः सांस्कृतिक तत्वों से गुंथे होते हैं अतः किसी भी साहित्यिक पाठ को समझने और समझाने के लिए पहले उसमें निहित सांस्कृतिक तत्वों को पहचानकर उनका विश्लेषण करना अनिवार्य है. लेखक यह कहते हैं कि “साहित्यिक पाठ के सन्दर्भ में भी यह सर्व स्वीकार्य तथ्य है कि अधिकांश साहित्यिक पाठ सांस्कृतिक तत्वों से आबद्ध होते हैं अतः सांस्कृतिक सन्दर्भों का विकोडीकरण साहित्यिक पाठ के विश्लेषक/शिक्षक के लिए अनिवार्य है.” (भाषा, साहित्य और सस्कृति शिक्षण, पृ.187). वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि “शिक्षक की सजगता का अर्थ है, यह जानना कि प्रत्येक भाषा अपने अनुभव संसार को अपने ढंग से संयोजित और व्यक्त करती है. भौतिक धरातल पर ये तथ्य भले ही एक हों किंतु बोधन के धरातल पर किसी भाषा समाज द्वारा अपनी विशिष्ट सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि के कारण ये एक नए सन्दर्भ में ग्रहण किए जाते हैं.” (वही, पृ.217). इस पुस्तक में संस्कृति शिक्षण पर जोर दिया गया है. इस तरह की यह अनूठी पुस्तक है. इस पुस्तक के बारे में स्पष्ट करते हुए स्वयं लेखक ने कहा है, “भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण के बीच अंतः क्रियात्मक प्रणाली का प्रतिपादन करने से यह पुस्तक अधिगम विकास की उस संकल्पना को साकार करती है जिसमें शिक्षण की एक सीमा के बाद भाषा अध्येता स्वतः अपने प्रयास से अपनी भाषायी समझ और भाषा प्रयोग की शक्ति का विकास करने की ओर उद्यत होता है.” (वही, आवरण). 

प्रो.दिलीप सिंह कृति केंद्रित आलोचना पर बल देते हैं. वे यह मानते हैं कि किसी साहित्यकार अथवा साहित्यिक कृति को समझने के लिए साहित्यिक पाठ का संपूर्ण विश्लेषण अनिवार्य है. प्रो.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव के कथन ‘कृति (साहित्यिक पाठ) की वस्तु भाषा के द्वारा ही नहीं अपितु भाषा के भीतर जन्म लेती है’ से वे पूरी तरह सहमत हैं. वे मानते हैं कि “कृति केंद्रित आलोचना रचना को गहराई के साथ पढ़ने और सूक्ष्म दृष्टि से किए गए अभिव्यक्ति के विश्लेषण के आधार पर पाठ की अद्वितीयता और उसकी अर्थच्छाया के उद्घाटन की महत्ता पर बल देती है.” (पाठ विश्लेषण, भूमिका). 2007 में प्रकाशित पुस्तक ‘पाठ विश्लेषण’ में लेखक ने दो खंडों (कविता संदर्भ और गद्य संदर्भ) में भक्तिकालीन कविता से लेकर समसामयिक हिंदी साहित्य में निहित लोक, संस्कृति, समाज आदि का पाठ विश्लेषण प्रस्तुत किया है. 

भाषा के अभाव में मनुष्य समाज का अस्तित्व संभव नहीं है. हम भाषा के माध्यम से हे सब काम करते हैं परंतु भाषा के बारे में जयादा नहीं जानते. जिस भाषा का प्रयोग हम दैनंदिन जीवन में करते हैं, उसके बारे में जानने और समझने का प्रयत्न नहीं करते. इतना ही नहीं उसके बारे में गलत धारणाएँ भी पाल लेते हैं. प्रो.दिलीप सिंह भाषा के प्रति सजग हैं अतः अपनी पुस्तक ‘भाषा का संसार’ (2008) में उन्होंने भाषा से संबंधित सिद्धांतों, पाश्चात्य एवं भारतीय भाषा चितकों की मान्यताओं के साथ साथ अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की शाखाएँ और भाषा समुदाय, द्विभाषिकता, कोड मिश्रण और कोड परिवर्तन, भाषा द्वैत, भाषा नियोजन, पिजिन और क्रियोल, मानकीकरण और आधुनिकीकरण तथा अधिशासी और अधिशासित भाषाएँ जैसी आधुनिक संकल्पनाओं को स्पष्ट किया है. इस पुस्तक में उन्होंने जोर देकर यह प्रतिपादित किया है की भाषाविज्ञान जड़ नहीं होता. 

‘हिंदी भाषा चिंतन’ (2009) में प्रो.दिलीप सिंह ने सात खंडों में मूलतः हिंदी भाषा विषयक विमर्श का एक नया आयाम प्रस्तुत किया है. इस पुस्तक में उन्होंने भाषाविज्ञान के विकास में महिलाओं के योगदान का भी विवेचन किया है. आमतौर पर प्रयोजनमूलक हिंदी कार्यालीन हिंदी तक सीमित रह जाती है. पर लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि कार्यालयीन हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी की एक शैली मात्र है. इसको विस्तार देते हुए उन्होंने ‘हिंदी की प्रयोजनमूलक शैलियाँ’ शीर्षक खंड में व्यावसायिक हिंदी की चर्चा करते हुए पत्रकारिता की हिंदी और साहित्य समीक्षा के साथ साथ पाक विधि की हिंदी की प्रयुक्ति का सोदाहरण विवेचन किया है. इस कृति में लेखक ने यह उद्घाटित किया है कि साहित्य से लेकर रसोई तक रस परिपाक का आधार भाषा ही है. 

प्रो.दिलीप सिंह मूलतः भाषा शिक्षक हैं. उन्हें द्वितीय भाषा और विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण का व्यापक अनुभव है. हिंदी में अन्य भाषा शिक्षण की सैद्धांतिकी को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करनेवाली पुस्तकें काफी कम है. डा.सिंह ने इस कमी को दूर करने का यथाशक्ति प्रयास किया है. इस दृष्टि से ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ के बाद ‘अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ’ (2010) विशेष रूप से ध्यान खींचने वाली किताब है. यह पुस्तक अन्य भाषा शिक्षण के परिवर्तनशील स्वरूप को सामने रखती है तथा संप्रेषण और शैली को आधार बनाती है. इसमें इलेक्ट्रानिक मीडिया और कंप्यूटर की भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है. वास्तव में यह किताब हिंदी भाषा के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ को गढ़ने में अत्यंत उपयोगी हो सकती है. अन्य भाषा शिक्षण में शैलीविज्ञान और समाजभाषाविज्ञान का अनुप्रयोग इस पुस्तक की मौलिक विशेषता है. 

हिंदी के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ के निर्माण में अनुवाद का भी बड़ा महत्व है. प्रो.दिलीप सिंह अनुवाद चिंतन से आरम्भ से ही जुड़े रहे हैं. अनुवाद विज्ञान के एक सफल अध्यापक के रूप में उन्होंने देश भर में ख्याति प्राप्त की हैं. ‘साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श’, ‘अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य’ (स्मारिका), ‘अनुवाद : नई पीठिका, नए संदर्भ’ और ‘अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य’ (ग्रंथ) जैसी संपादित कृतियों के माध्यम से उन्होंने अनुवाद के चिंतन और व्यवहार पक्ष के सभी आयामों को एकत्र करने का अनुष्ठान संपन्न किया है. इसका अगला चरण है ‘अनुवाद की व्यापक संकल्पना’ (2011) जिसमें बदलते भूमंडलीय सामाजार्थिक सन्दर्भों में अनुवाद की नई भूमिका की व्याख्या की गयी है. यहाँ प्रो.सिंह ने समतुल्यता के सिद्धांत को पुनर्व्याख्यायित किया है और अनुवाद मूल्यांकन जैसे सर्वथा नए विषय पर इस पुस्तक में कई प्रारूप दिए गए हैं जो इसे शोधार्थियों और भाषा अध्येताओं के लिए विशेष उपयोगी बानाते हैं. भारत की बहुभाषिकता के संदर्भ में अनुवाद की उपादेयता को प्रतिपादित करने के अलावा यह पुस्तक अब तक के अनुवाद चिंतन को सार रूप में प्रस्तुत करने के कारण इस विषय की अनिवार्य पुस्तक बन गई है. 

इस प्रकार प्रो.दिलीप सिंह ने अपनी अब तक प्रकाशित कृतियों के माध्यम से हिंदी भाषाविज्ञान और भाषा चिंतन को ही परिपुष्ट नहीं किया है बल्कि निरंतर सामाजिकता और व्यावहारिकता पर ध्यान केंद्रित रखते हुए अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान को हिंदी के संदर्भ में नई दिशा प्रदान की है. 

वर्ष 2011 – 2012 गुरुवर प्रो.दिलीप सिंह का षष्ठिपूर्ति वर्ष है. इस संदर्भ में हम उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करते हैं : 

"चेतना का सुंदर इतिहास-अखिल मानव भावों का सत्य, 
 विश्व के हृदय-पटल पर दिव्य-अक्षरों से अंकित हो नित्य." (कामायनी) 


2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आज भाषा के सरलीकरण की आवश्यकता है और प्रो. दिलीप सिंह जी हमेशा देशज शब्दों को अधिक प्रयोग करने की बात भी कहते है जिससे यह शब्द साहित्य की आंधी में लुप्त न हो जाय। उन पर अच्छा लेख जिसमे उनके लेखन और जीवन की झलक मिलती है।

Kavita Vachaknavee ने कहा…

उनके स्नेह की विशेष पात्र होने के नाते उन पर लिखा प्रत्येक शब्द बड़ा अच्छा लगता है। और इसे तो प्रिय नीरजा ने लिखा है। अच्छा लगा। शुभकामनाएँ !