शनिवार, 7 जुलाई 2012

पुनश्चर्या कार्यक्रम का दूसरा दिन



06/07/2012 की सुर्खियाँ 

·         कालीकट विश्वविद्यालयकेरल के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो.अच्युतन का व्याख्यान 
·         नाटक और रंगमंच की अवधारणा और हिंदी रंगमंच की नई प्रवृत्ति पर चर्चा 
·    पारसी हिंदी नाटक और रंगमंच से तीस वर्षों से जुड़े , उस्मानिया  विश्वविद्यालय के थियेटर आर्ट्स विंग के अध्यक्ष प्रो.प्रदीप कुमार का व्याख्यान  


पुनश्चर्या पाठ्यक्रम का दूसरा दिन. 
10.30 बजे क्लास में प्रो.अच्युतन पधारे. पर क्लास में केवल तीन चार प्रतिभागी थे. धीरे धीरे संख्या बढ़ी. जैसे जैसे संख्या बढ़ी अच्युतन जी में भी उत्साह बढ़ने लगा. प्रथम सत्र का विषय था  'नाटक और रंगमंच की अवधारणा’ और दूसरे सत्र का  -  ‘हिंदी रंगमंच की नई प्रवृत्ति.’

प्रो.अच्युतन के व्याख्यान का सार संक्षेप 

नाटक और रंगमंच के बीच निहित अंतर को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि "नाटक संपूर्ण कलाओं का संगम है. मानव अभिव्यक्ति के तीन चरण हैं - नृत्तनृत्य और नाट्य. नृत्त अर्थात ताल + लय. ताल वस्तुतः दो अक्षरों का संगम है - त (तांडव) + ल (लास्य). नाटक हो या अन्य कोई कला उसमें ताललयात्मक स्थिति को बनाए रखना अनिवार्य है. सृजनात्मकता के लिए यह अनिवार्य है.  'पदार्थाभिनयम भावाक्ष्यम नृत्यम' अर्थात भाव के साथ पदार्थ का अभिनय ही नृत्य है. नाट्य वाक्य के अर्थ का अभिनय रसात्मक ढंग से करता है. कम्युनिकेशन थियोरी ईस क्लोस्ली रिलेटेड टू द थियेटर. 


नाटक साहित्य में भाषा माध्यम के आधार पर बदलती है. अर्थात पुस्तक में वह बिंबात्मक शब्द के रूप में होती है, मंच पर वह मंच की भाषा में बदल जाती है. फ़िल्म में वह कैमरा की भाषा बन जाती है. अतः माध्यम सबसे महत्वपूर्ण है. बिंब माध्यम के अनुरूप बदलता है. नाटक में मुख्य रूप से तीन सिद्धांत काम करते हैं – अरस्तु का विरेचन सिद्धांत, भामह का रस सिद्धांत और जियाको का हाना सिद्धांत. संप्रेषण सिद्धांत थियेटर से संबद्ध है. एक अच्छा  कलाकार अपने श्रोताओं को अपने साथ बहा ले जाता है. जयशंकर प्रसाद ने भी कहा है कि ‘नाटक के लिए रंगमंच चाहिए, रंगमंच के लिए नाटक नहीं. हर व्यक्ति अपने समय के साथ इंटरेक्ट करता है.

वस्तुतः लोकधर्मिता और नाट्यधर्मिता हिंदी रंगमंच की प्रवृत्तियाँ हैं. इन दोनों में लोकधर्मिता सबसे महत्वपूर्ण है चूंकि लोकनाटक से ही शास्त्रीय  और आधुनिक नाटक का जन्म हुआ और लोकनाटक में नैसर्गिक अभिव्यक्ति होती है. तीन स्तरों पर नाटक की प्रवृत्तियों को  देखा जा सकता है – कथ्य के स्तर पर, शिल्प के स्तर पर और प्रयोग के स्तर पर.

भोजनोपरांत  सत्रों में  उसमानिया विश्वविद्यालय के थियेटर आर्ट्स विंग के अध्यक्ष प्रो.प्रदीप कुमार का व्याख्यान था. पहले प्रो.प्रदीप कुमार ने अपना परिचय दिया और बाद में प्रतिभागियों को अपना अपना परिचय देने को कहा. जब मैंने अपना परिचय दिया कि दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद में प्राध्यापक हूँ और साथ ही ‘स्रवन्ति’ पत्रिका की सह-संपादक हूँ तो उन्होंने कहा ‘अच्छा ‘स्रवन्ति’ को आप ही देख रहीं हैं. आजकल उसमें प्रकाशित होने वाले लेख (दोनों भाषाओं में) बहुत स्तरीय हैं और पठनीय भी.’ मैंने उनसे कहा कि मैं अपने विभागाध्यक्ष  प्रो.ऋषभ देव शर्मा जी के निर्देशन में पत्रिका का काम देख रहीं हूँ तो उन्होंने बधाई दी.


प्रो.प्रदीप कुमार के व्याख्यान का सार संक्षेप
सत्र का विषय था ‘पारसी-हिंदी नाटक और रंगमंच.’ पहले प्रो.प्रदीप कुमार ने पारसी नाटक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि “सन 1840 के आसपास मुंबई और कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्य-कलाप बढ़ रहे  थे. पारसी लोग इन दोनों  शहरों में राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन बिता रहे थे. अपने साथ वे इंग्लैंड से शेक्सपियर थियेटर को भी लाए थे. इस रंगमंच के माध्यम से वे अपना मनोरंजन किया करते थे. यह रंगमंच निष्प्राण, बनावटी दिखावे का था. इनके रंगमंच में कॉमेडी ऑफ मैनर्स, कॉमेडी ऑफ इंट्रीग, भावुकता और मेलोड्रामा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था. शेक्सपीयर रंगमंच में केवल मारधाड, जादू, भूत, हत्या, रोमांच होने के कारण उस समय के दर्शक आकर्षित होते थे. सन 1849 में मुंबई ग्रांड रोड पर ‘बंबई थियेटर’ बना. इस थियेटर कंपनी में अंग्रेज, पारसी और हिन्दुस्तानी कलाकार मिलकर अंग्रेज़ी नाटकों की  नक़ल करने लगे. उन्होंने  अंग्रेज़ी की नकल में कई नाटकों का मंचन किया. इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों में ‘हिन्दु ड्रमेटिक कोर’ नामक ड्रामा कंपनी का शुभारंभ हुआ. इस कंपनी का लक्ष्य था कि सभी नाटक हिन्दुस्तानी भाषा में ही खेले जाएं . इस कंपनी के तत्वावधान में 1853 को पहले  मराठी नाटक का मंचन हुआ. इसके पश्चात गुजराती नाटकों का मंचन हुआ. 26 नवंबर 1853 को ‘राजा गोपीचंदर’ नामक उर्दू नाटक का मंचन सफलतापूर्वक हुआ. यह नाटक शेर-शायरी से परिपूर्ण ऑपेरा था. इस प्रकार से पारसी रंगमंच का जन्म हुआ. पारसी थियेटर किसी रंगमंच विशेष का नाम नहीं है, केवल उन कंपनियों के मालिक पारसी थे. यह पारसी रंगमंच दर्शक समाज का दिया हुआ नाम है.

पारसी हिंदी नाटक और रंगमंच के विकास में  भारतीय लोकनाट्यों का योगदान रहा. पारसी हिंदी रंगमंच ने विशेषकर लोकनाट्यों से गीत तत्व एवं रागबद्ध   संगीत को ग्रहण किया है. रामलीला, नौटंकी तथा पारसी रंगमंच इन  तीनों ने परस्पर एक दूसरे को प्रभावित किया. स्वांग आदि पर अपना प्रभाव डाला. इन  लोक नाटकों में आज भी पारसी रंगमंच की तड़क-भड़क है. आरंभ में पारसी रंगमंच के  पारसी और मुसलमान निर्देशक, अभिनेता और रंगकर्मी हुआ करते थे. कालान्तर में मराठी, गुजराती, मारवाडी, हिंदी भाषी अभिनेता, निर्देशक, गायक पारसी रंगमंच के सहभागी बन गए.

कहा जाता है कि वाजिद अली शाह की  देख-रेख में ‘अमानत’ नामक कवि ने ‘इंद्रसभा’ नृत्य-संगीतमय गीत-नाट्य को प्रस्तुत किया था. स्वयं वाजिद अली शाह ने इस गीति-नाटक में इंद्र की भूमिका निभाई थी. ‘इंद्रसभा’ नाटक लोकप्रिय होने के कारण देशी और विदेशी भाषाओं में इसका नाट्य रूपांतरण हुआ. कई मेलों में इस नाटक को ‘पैसा तमाशा’ के नाम से प्रस्तुत किया गया. इस व्यवसाय से प्रभावित होकर कुछ पारसी कलाकार व्यवसायी  रंगमंचीय कंपनी के लिए अग्रसर हुए. पारसी थियेटर ने आरंभ में ‘सोहराब और रुस्तम’ की कथा को नाट्य रूपांतरित कर जनसामान्य में मंचित किया. सन 1872 में दिल्ली में ‘विक्टोरिया’ नामक नाटक कंपनी की स्थापना हुई. इस नाटक कंपनी में रुस्तमजी, मिस खुर्सेद, मिस महताब, अंग्रेज़ी महिला मिस मेरी फेंटन और हास्य रस के प्रसिद्ध  अभिनेता बलीवाला ने अभिनय किया . इस कंपनी के लिए बनारस निवासी विनायक प्रसाद टालीव ने विक्रम विलास दिलेर, दिलशेर, निगाहे गफलत, गोपीचंद्र और हरिश्चंद्र आदि नाटकों की रचना की.

सन 1898 में पेस्टन प्रेमजी ने ‘द बंबई पारसी ओरिजनल ऑपेरा कंपनी’ की स्थापना की. इस कंपनी में खुरदीदजी, बलीवाला, कावसजी, ढाटाऊ, सोहराबजी, जहांगीरजी आदि अभिनेता अभिनय करते थे. इस कंपनी के सभी अभिनेता पारसी थे. इस कंपनी ने सात वर्ष की अवधि में इन  नाटकों का मंचन करवाया – नतीजा अस्मत, खुदा दोस्त, चाँद बीबी, तोहफाए दिलकुसा, बुलबुले बीमार, तोहफाए दिल अजीर, शीरी फरहाद, अलीबाबा, बद्रे मुनीर, अल्लाउद्दीन, लैला मजनू, गुलबकावली, हवाई मजलिस, हातिमताई, गुल सरोवर, नकगए सुलेमान, अक्सीरे आजम, इसरत सभा, हुस्न अफरोज, खुदादाद इत्यादि.''

प्रो.प्रदीप कुमार ने इस अवसर पर हिंदी और तेलुगु दोनों भाषाओं में अपने द्वारा निर्देशित और अभिनीत कुछ पारसी नाटकों की  झलक दिखायी  - मीरा, साई बाबा, अनारकली, कफ़न, पूस की रात, रंगभूमि, वापसी, शेखर-एक जीवनी आदि.

प्रो.प्रदीप कुमार की धर्मपत्नी श्रीमती वंदना प्रदीप कुमार भी इस अवसर पर उपस्थित थी. वे सिर्फ प्रदीप कुमार जी की  रियल लाइफ हीरोइन ही नहीं  बल्कि  रील लाइफ हीरोइन भी हैं.

1 टिप्पणी:

vara ने कहा…

aap ka kaam kabile thaarif. photoes mail karne ke liye dhanyavaad. Dr.Varaprashad.