मंगलवार, 28 अगस्त 2012

अक्षर मेरा अस्तित्व




‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ [2011] तेलुगु कवयित्री डॉ. सी. भवानीदेवी की हिंदी में अनूदित कविताओं का पहला संग्रह है. इस संकलन में 41 कविताएँ और 10 नानीलु (नन्हे मुक्तक) सम्मिलित हैं. तेलुगु में डॉ.भवानीदेवी के 7 कविता संग्रहों और 2 नानीलु संग्रहों के साथ साथ अनेक समीक्षात्मक आलेख, कहानियां और यात्रावृत्त प्रकाशित हैं. ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ के माध्यम से अनुवादिका श्रीमती आर.शांता सुंदरी ने डॉ.भवानीदेवी की रचनाओं से हिंदी साहित्य जगत को परिचित कराया है. ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ के लोकार्पण के अवसर पर मैं कवयित्री डॉ.सी.भवानीदेवी और अनुवादिका श्रीमती आर. शांता सुंदरी को हार्दिक शुभकामनाएँ देती हूँ. 

तेलुगु कविता के क्षेत्र में ‘नानीलु’ के प्रवर्तक के रूप में प्रो.एन.गोपि को जाना जाता है. भवानीदेवी ने प्रो.एन.गोपि के कवित्व से प्रेरणा पाकर इस काव्य विधा को अपनाया. जहां तक मेरा सीमित ज्ञान है, तेलुगु कवयित्रियों में इस विधा को अपनाने वाली प्रथम कवयित्री भवानीदेवी ही हैं. विवाह से संबंधित उनका एक ‘नानी’ इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि बड़े सहज रूप में लोग उसका प्रयोग करते रहते हैं – “विवाहमा/ एंता पनि चेसावु/ ना पुट्टिंटिकि/ नन्ने अतिथिनि चेसावु.” (विवाह/ तुमने यह क्या किया/ मायके में मुझे/ मेहमान बना दिया). 

भवानीदेवी संवेदनशील कवयित्री हैं. उनकी कविताओं में मूर्त-अमूर्त और जड़-चेतन सब निहित हैं. महाकवि श्रीश्री ने कहा है कि कविता के लिए कोई भी वस्तु त्याज्य नहीं है. उनके अनुसार तो यह जगत पद्मव्यूह है और कविता एक अनबुझी प्यास है. इसीलिए शायद भवानीदेवी ने तकिया से लेकर गुड़िया, पत्थर, लालटेन, ताजमहल, विज्ञापन, घड़ी के फ्रेम,किताब, मोर पंख आदि के माध्यम से नए नए बिंब गढे – 

“मेरा बचपन/ किताबों में मोर पंख-सा छिपा हुआ है/ पत्तों के बीच में से छलकती चांदनी की तरह/ मेरी आत्मा खिलती रही उसी छत पर/ एकांत घड़ी के फ्रेम में/ काल गमन सूचक पेंडुलम की राह में/ उसी घर के दर्पण में/ वयरूप होने का पाउडर लगाया था/ मैंने घड़ी घड़ी.” (प्रतीक्षा) 

भवानीदेवी की कविताओं को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि कवयित्री को समाज की चिंता है. उनकी मूलभूत चिंता व्यक्ति, वर्ग या वर्ण नहीं है बल्कि मनुष्य है. इसीलिए वे कहती हैं कि “मानवी बनूँ/ प्यूपा को तोड़कर/ तितली बनकर हवा के संग-संग उड़ जाऊं...” (नौकरी). 

कवयित्री परिवेश के प्रति संवेदनशील हैं. वे कहती हैं – “गुर्तुलेनि नेस्तम!/ भूतद्दानिकिकूडा दोरकनि नल्लपूसवैयावु/ कांक्रीटु जन्गिल्स, सेलफोनल प्रकंपनालु/ मी पसिडिगूल्लनु काटेयटम/ ना उरुकू परुगुल जीवितमलो/ ओक्कसारैना तलवलेनि विषादम” (गूडू). इस अंश का अनुवाद बहुत ही सहज और लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप है – “कहाँ खो गई कि नज़र ही नहीं आती!/ कांक्रीट जंगलों में सेलफ़ोन के प्रकम्पनों का/ तेरे सुनहरे घोंसले को डसना एक विषाद है/ मेरी दौड़ धूप वाली ज़िंदगी में” (उन दिनों का घोंसला). यह अंश पढ़ते समय मुझे प्रो.एन.गोपि की कविता का वह अंश याद आया जिसमें वे कहते हैं कि - “कम्युनिकेशन के शोर से घबराकर/ कबूतर उड़ते चले जा रहे हैं/ उन्हें पकड़कर रोकिए/ ‘हैलो’ के एक ही तीर से/ रसार्द्र जीवन के खजाने को मत नष्ट कीजिए.” (एन.गोपि, मरती हुई चिठ्ठी, समय को सोने नहीं दूंगा). 

भवानीदेवी मानव संबंधों को ज्यादा महत्व देती हैं. आज की संवेदनहीन दुनिया को देखकर वे विचलित होकर कहती हैं – “मानव संबंधालनु/ की बोर्ड मीद ओत्तलेम कदा!” [मानव संबंधों को/ की-बोर्ड पर दबाया तो नहीं जा सकता है न! (अक्षर मेरा अस्तित्व)]. आज का मनुष्य भीड़ में भी अकेला है. वह जीवन की आपाधापी में अपने आप तक से कटता जा रहा है. बाज़ार ने मानवीय संबंधों को अपने कब्जे में कर लिया है. “ओक्टोपस सौंदर्य के बाज़ार में/ कपड़ों और मूल्यों का शिकार करनेवाला तो/ वर्तमान विज्ञापनों का अंकों का संसार ही है!” (एक सौंदर्य वेदना-गीत). 

इसी संदर्भ में एक और उदाहरण देखिए – “मानवीय संबंधों को समाप्त करके/ घर की बोली को चबाकर रख देनेवाली/ पराई भाषा/ अमेरिका की मिट्टी के लिए/ भूखी बनी हुई है/ टूटे उजड़े घर.” (छोटा सा दीया). बाज़ार हमें अपनी मिट्टी से संबंध तोड़ने पर मजबूर कर रहा है. दिन-ब-दिन अमानुषता हमारे अंदर घर कर रही है. “भूमि मीद विस्तरिस्तुन्न येडारिला/ प्रति मनस्सुलो अमानवीयता.” (धरती पर फैलते रेगिस्तानों की तरह/ हर एक दिल में अमानुषता.). स्वार्थ ने मानव की कोमल संवेदनाओं को निगल लिया है. इस बात को कवयित्री ने नन्हे मुक्तक के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया है – “ दक्खन नेलकि/ पडमरा गालि/ मध्यतरगतिनि/ मिन्गेसिंदी.” (दक्खन की ज़मीन पर/ पश्चिमी हवा/ मध्यम वर्ग को/ निगल गई). 

यह संवेदनहीनता, संबंधहीनता और अपसंस्कृति सिर्फ शहर तक सीमित नहीं है बल्कि गाँव भी इनकी चपेट में आ गए हैं. आज गाँव के गाँव उजड़ रहे हैं क्योंकि जिन खेतों में अन्न उगाया जाना चाहिए उनमें नोटों की गड्डियाँ उगाने के लोभवश पत्थर की इमारतें खड़ी की जा रही हैं. इस अविवेकपूर्ण तथाकथित विकास का यह प्रभाव है कि-“नोटों की गड्डियाँ फैलती जा रही हैं खेतों में/ कबूतरों को भगानेवाले संगमरमर के पत्थर/ आज गाँव है/ एक उजड़ा मंदिर,” लेकिन कवयित्री यह कहती हैं कि “फिर भी मेरे पैर उसी ओर खींच ले जाते हैं मुझे/ भले ही मंदिर उजड़ गया हो/ वहाँ एक छोटा-सा दीया जलाने की इच्छा है.” (छोटा सा दिया). 

इन तमाम उदाहरणों से स्पष्ट है कि डॉ.भवानीदेवी की कविताओं में विषय वैविध्य है. स्त्री विमर्श, पर्यावरण विमर्श, भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण आदि समकालीन विमर्श इन कविताओं में विद्यमान हैं. अनेक सूक्तियां भी इन कविताओं में निहित हैं. (साम्राज्यवाद जब ढह जाता है/ तो साम्यवाद का स्वागत होता है.). 

स्त्री विमर्श तो इस संकलन की लगभग हर कविता में निहित है. उदाहरण के तौर पर मैं कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूंगी – ‘नाभिनाल के कटते ही तू पगहे से बंध गई’, ‘मेरे अंदर दबे सिंड्रोमों की वेदना’, ‘पिंजड़े में बंद पंछी की तरह नरक भोगती हूँ!’, ‘रंगीन प्लास्टिक थैले से सर्र करते फिसलकर गिरा था एक काला नाग’, ‘नौकरी, अस्मिता, सब कुछ भूल जा, शौक और दोस्ती को तलाक दे दे!’, ‘मैं आंसुओं से भरी घटा ही बनी रहूंगी, तेरे पैरों तले कबूतरी-सी कुचलती रहूंगी’, ‘पीढ़ियों से सडती आ रही निश्चेतन ‘माम्मीपन’. अभिप्राय यह है किकवयित्री को स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता की चिंता है. प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने इस पुस्तक की भूमिका [जिसका शीर्षक है ‘अ...’] में एकदम सही कहा है कि “मनुष्य के रूप में एक स्त्री के अस्तित्व की चिंता डॉ.भवानी के रचनाधर्म की पहली चिंता है. भारत की आम स्त्री उनकी कविता में अपनी तमाम पीड़ा और जिजीविषा के साथ उपस्थित है. इस स्त्री को तरह तरह के भेदभाव और अपमान का शिकार होना पड़ता है, फिर भी यह तलवार की धार पर चलती जाती है, मुस्कुराहटों के झड़ने पर भी अक्षर बनकर उठती है और प्रवाह के विपरीत तैरने का जीवट दिखाती है.” इसीलिए कवयित्री बार बार कहती हैं कि ‘अक्षरमे ना अस्तित्वम’ – अक्षर ही मेरा अस्तित्व है. “अब मैं अक्षर बन उठ रही हूँ/ यह प्रवाह मुझे अच्छा नहीं लगता/ इसलिए मैं विपरीत दिशा में तैर रही हूँ.” (अक्षर ही मेरा अस्तित्व है). 

कवयित्री आज की शिक्षा नीति पर भी प्रहार करती हैं. आज कोर्पोरेट कल्चर पनप रहा है. शिक्षा संस्थाएं भी व्यापार के अड्डे बन गई हैं. “इप्पुडु बल्लंटे क्लासुलु कावनि ... कासुलु चेट्टलनि/ पिल्ललंटे पट्टूबड्लनी अनिपिस्तुन्दि” (आज स्कूल का मतलब/ शिक्षा नहीं रुपयों के वृक्ष हैं/ बच्चे पूंजी हैं). कोचिंग सेंटर्स और ट्युटोरियल्स के नाम पर शिक्षा का व्यापार किया जा रहा है. बच्चों का बालपन किताबों के बोझ तले दबता जा रहा है. उनके बस्तों का वजन दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है. बच्चे स्कूल जाने से डरने लगे हैं. वे अक्सर प्रश्न पूछते हैं – “स्कूल में है ही क्या माँ?/ किताबों का गट्ठर.../ जान जाने का डर.. बस!” (स्कूल नहीं जाऊंगा माँ!). 

कुम्भकोणम के स्कूल में अग्निकांड, 25 अगस्त 2007 को लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट भंडार में आतंकवादी बम विस्फोट, सुनामी का विध्वंस, तस्लीमा नसरीन पर हमला, प्लांट पेटेंट, जीन लाइसेंसिंग, बाज़ार की भ्रष्ट राजनीति, शिक्षा तंत्र द्वारा लूट-खसोट, स्त्री का वस्तूकरण आदि घटनाएं डॉ.भवानीदेवी के संवेदनशील मन को झकझोरती हैं. वे इन परिस्थितियों से जूझने वाले मनुष्य से कहती हैं कि “देश की एकता ही ध्वजस्तंभ बने/ पुरखों की संस्कृति ही मूल बने/ कन्याकुमारी से हिमालय तक एक सूत्र बने/ अनवरत प्रगति चक्र बने/ तन, मन, वचन से/ हर व्यक्ति एक झंडा बन सर उठाए.” (सारे जहां से अच्छा). 

कहना ही चाहिए कि ‘अक्षर मेरा अस्तित्व’ में सम्मिलित कविताओं का हिंदी अनूदित पाठ बहुत ही सहज और सरल है. अनुवादक श्रीमती आर.शांता सुन्दरी ने हिंदी की सहज अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया है जो लक्ष्य भाषा पर उनके मातृभाषावत अधिकार का प्रमाण है. इसके अलावा मूल तेलुगु काव्य में निहित संवेदना जिस प्रकार अनूदित पाठ में भी सुरक्षित है, उससे अनुवादक की काव्य-संवेदना का भी पता चलता है. 

मैं पुनः एक बार डॉ.भवानीदेवी और श्रीमती आर.शांता सुन्दरी को बधाई देती हूँ. 


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