रविवार, 7 सितंबर 2014

अस बिबेक जब देइ बिधाता

गत दिनों (26 जुलाई 2014 को) प्रमुख समाजभाषाविज्ञानी और पाठ विश्लेषण के मर्मज्ञ प्रो. दिलीप सिंह की पुस्तक ‘कविता पाठ विमर्श’ (वाणी प्रकाशन, 2013) का लोकार्पण उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद में हुआ था. पाठ केंद्रित नई समीक्षा दृष्टि को लेकर 2007 में आई उनकी पुस्तक ‘पाठ विश्लेषण’ की अगली कड़ी के रूप में इस पुस्तक को देखा जा सकता है जिसके माध्यम से हिंदी में पाठ विश्लेषण का उन्होंने व्यावहारिक प्रारूप प्रस्तुत किया है. इन दोनों पुस्तकों में उन्होंने यह सिद्ध किया है कि साहित्यिक कृति की स्वायत्त सत्ता होती है जिसका केंद्रक पाठ है अतः पाठ के भीतर पैठ कर ही किसी साहित्यिक कृति को आत्मसात किया जा सकता है. 

‘कविता पाठ विमर्श’ के बारे में यह एक रोचक तथ्य है कि इस पुस्तक में हैदराबाद के 15 कवियों-शायरों की काव्य-भाषा का शैली विश्लेषण किया गया है. ‘कविता पाठ विमर्श’ शैलीविज्ञान की पाठ-केंद्रित प्रणाली पर आधारित है. कविता के पाठ की भाषा संरचना तथा उसमें अभिव्यक्त प्रसंग के घटकों के बीच यथोचित रीति से सह-संबंध स्थापित करना इस विमर्श की मूलभूत विशेषता कही जा सकती है. 

इस पुस्तक के शीर्षक को ही पहले ध्यान से देखें – ‘कविता पाठ विमर्श’. शीर्षक में तीन गंभीर चीजें हैं – कविता, पाठ और विमर्श. ये तीनों अपने आप में स्वतंत्र और गंभीर क्षेत्र हैं. इन तीनों क्षेत्रों को प्रो. दिलीप सिंह ने कुशलतापूर्वक एक ही पुस्तक में इस तरह पिरोया है कि पाठक को कहीं से भी ऊब का अहसास नहीं होता बल्कि पाठ विश्लेषण के प्रति आरंभ से लेकर अंत तक पाठक का रुझान गहराता जाता है. 

‘कविता पाठ विमर्श’ के माध्यम से लेखक ने अत्यंत गंभीर, जटिल और गहन विषय को अत्यंत सरल, सहज और सुबोध भाषा में समझाया है. इस पुस्तक में 16 निबंध और 1 परिशिष्ट सम्मिलित हैं. प्रथम चार निबंध इस पुस्तक के सैद्धांतिक निबंध हैं. इनमें क्रमशः काव्य भाषा, कविता, कवि और आलोचना से संबंधित विषयों का विवेचन है. शेष 15 निबंध व्यावहारिक आलोचना हैं. पुस्तक की भूमिका में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि “इस विमर्श में भाषा-पक्ष के भीतर रहकर कविता के बाहर देखने का यत्न भी मिलेगा. वस्तु और रूप को ‘एक ही सिक्के के दो पहलू’ मानने वाला समय गुजर चुका है, अब इन्हें एक ही फली के दानों की तरह देखने की बात की जा रही है. *** इस विमर्श में किसी आलोचना स्कूल (संप्रदाय) का प्रभाव नहीं है. संभवतः इसीलिए यहाँ नए-पुराने कवियों-आलोचकों की टिप्पणियाँ उद्धृत हैं.” (कविता पाठ विमर्श, भूमिका).

‘कविता पाठ विमर्श’ के आरंभिक चार निबंधों पर पहले दृष्टि केंद्रित करेंगे. इन निबंधों का नामकरण भी ध्यान आकृष्ट करता है. ‘गहि न जाइ अस अद्भुत बानी’ - काव्य भाषा से संबंधित है, ‘सो कबित्त कहावै (चित्त हरै जो प्रबीनन को)’ – कविता से, ‘भाषाबद्ध करबि मैं सोई, मोरे मन प्रबोध जेहि होई’ – कवि से तथा ‘जिमि सिसुतन व्रण होहि गुसाईं, मातु चिराब कठिन की नाईं’ – आलोचना से संबंधित है. तुलसी की इन उक्तियों को पाठ-विश्लेषण की सैद्धांतिकी की कसौटी के रूप में प्रस्तुत करने से, प्रकारांतर से, यह व्यंजित होता है कि तुलसी महाकवि ही नहीं काव्यशास्त्री और भाषावैज्ञानिक भी थे. शीर्षक और निबंध दोनों एक-दूसरे से संबद्ध है. इन निबंधों में प्रो. दिलीप सिंह ने कविता पाठ विश्लेषण की सैद्धांतिकी निर्मित की है जो उन्हें निस्संदेह हिंदी शैलीविज्ञान के मौलिक सिद्धांतकार के रूप में स्थापित करने के लिए पर्याप्त है. आमतौर से शैलीविज्ञान की मोटी मोटी सैद्धांतिक किताबों को पढ़ते समय दो तरह की बातें सामने आती हैं. एक यह कि ‘शैली ही व्यक्ति है’ और दूसरी यह कि ‘शैलीविज्ञान कृति आधारित आलोचना है’. देखा जाय तो ये दोनों बातें परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं क्योंकि एक में शैली को व्यक्ति-सापेक्ष तथा दूसरी व्यक्ति-निरपेक्ष माना गया है. इसके अलावा प्रायः देखा गया है कि पाठ पर जोर देने वाले आलोचक पाठ के रचयिता को किनारे छोड़कर कृति में गोते लगाया करते हैं. इसकी तुलना में प्रो. दिलीप सिंह ने इस पुस्तक में जो प्रणाली प्रस्तावित की है वह व्यक्ति और अभिव्यक्ति दोनों को साथ लेकर चलती है. वे बड़ी सीमा तक इस बात को मानते दिखाई देते हैं कि व्यक्ति की अभिव्यक्ति व्यक्ति के अनुरूप ही होती है. इसीलिए वे कहते हैं कि “यदि कवि में खुद संस्कार न हों तो वह अपने पाठकों में कैसे और क्या संस्कार भर सकेगा? कवि अपने प्रति, अपने समाज के प्रति, प्रकृति और परिंदों के प्रति जितना ही उदार होता है, उसकी कविता में उतना ही लोच आता है. यही उदारता कवि को भाषा के प्रति भी रखनी होती है.” (पृ. 25). साथ ही वे यह भी मानते हैं कि “भाषा की साफगोई और खरेपन के साथ ही कवि की दृष्टि वस्तु पक्ष पर भी होनी चाहिए. महज संवेदना के बहाव में नहीं, वस्तु पक्ष के वजन पर सटीक अभिव्यंजना – नवीन अभिव्यंजना, कवि के लिए अभीष्ट है.” (पृ.27). 

शैलीवैज्ञानिक आलोचना पर जो यह आक्षेप लगाया जाता है कि वह रचनाकार के व्यक्तित्व की उपेक्षा करती है, यह पुस्तक उसका अतिक्रमण है. भूमिका में इस बात को प्रो. दिलीप सिंह ने इस तरह अभिव्यक्त किया है – “कवियों का व्यक्ति-चित्र भी विमर्श में है. पहले इसे निकाल देने का मन बना पर इसका महत्व यह लगा कि इन कवियों के साथ मेरे आत्मीय संबंध उजागर हो रहे हैं, जिन्हें यहाँ जरूर सुरक्षित रखना चाहिए. दूसरे यह कि कवि के जीवन के कुछ चिह्न या निशान जो उसकी रचना में भी प्रच्छन्न रूप में लुके-छिपे दिखाई दिए हैं – उन्हें पकड़ा जा सके.” (भूमिका). इसे शैलीविज्ञान का विस्तार कहा जा सकता है. बार बार लेखक इस बात पर बल देते हैं कि अभिव्यक्ति को संप्रेषणीय कैसे बनाया जाय क्योंकि उनके अनुसार अभिव्यंजना की विशिष्टता ही कवि को विशिष्ट बनाती है. तभी तो उन्होंने इन कवियों के पाठ विश्लेषण के साथ साथ उनके व्यक्तित्व का भी विश्लेषण प्रस्तुत किया है. उनकी मान्यता है कि “रचना को नया लहजा, नया मुहावरा देना – कवि की पहचान होती है. इसी से उसकी पहचान बनती भी है. नहीं तो वह साधारण और छोटा कवि ही बना रह जाता है, बड़े कवियों का अनुकरण करते हुए, उन्हीं को दुहराते हुए. इसलिए भाषा में अर्थ के ‘इकहरेपन’ से कवि को लड़ना चाहिए. इस लड़ाई के लिए कवि को ‘ज़िंदा भाषा’ की ओर यात्रा करनी होती है. *** यही तत्व कवि में फक्कड़ता, मस्ती, अस्वीकार को ही नहीं, वेदना, करुणा, वात्सल्य और प्रेम को भी व्यंजित करने की अकूत शक्ति भरता है.” (पृ. 27). 

कवि, कविता, काव्य भाषा और आलोचना/ विमर्श के संबंध में प्रो. दिलीप सिंह की दृष्टि साफ़ है. वे घुमावदार बातें नहीं करते. वे मानते हैं कि यदि व्यक्ति (कवि/ साहित्यकार) भाषा का साक्षात्कार करता है तो वह उसे नई व्यंजना प्रदान कर सकता है तभी उसमें काव्यत्व उमड़ेगा और तभी उसकी परिणति कविता की भाषा के रूप में होगी. किसी विशेष संवेदना को स्वर देने के लिए कवि शब्द चयन, ध्वनिगत विशिष्टता, शब्दार्थ के विविध स्तर, अलंकार, प्रतीक, कथन-भंगिमा, सौंदर्य आदि को अपने ढंग से प्रयोग करता है. “तभी तो कविता तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रहती है – जगाती है, ललकारती है, चेताती है और समझाती भी है. बताती तो वह है ही.” (पृ. 24). वे बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि मानवीकरण, विचलन आदि शैलीय उपकरणों से बंधकर ही काव्य अभिव्यंजना निखरती है, रूप लेती है तथा कविता और कवि के लिए लोकदृष्टि अनिवार्य है. (पृ. 41). यदि कहा जाय कि प्रो. दिलीप सिंह में यह लोकदृष्टि कूट-कूट कर भरी हुई है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. 

वस्तुतः कवि/ साहित्यकार से जिस तरह प्रतिभा की अपेक्षा की जाती है उसी तरह पाठक से भी विशेष प्रकार की प्रतिभा की अपेक्षा की जाती है. तभी वह कविता/ साहित्यिक कृति के ‘बिटवीन द लाइन्स’ पहुँच सकता है और उस कृति को रेशे-रेशे खोल सकता है. तभी वह एक अच्छा आलोचक बन सकता है. एक अच्छा पाठक ही अच्छा आलोचक बन सकता है. कहना न होगा कि प्रो. दिलीप सिंह ने अपनी पाठकीय प्रतिभा तथा आलोचकीय दृष्टि से ‘कविता पाठ विमर्श’ के पाठकों को कविता को समझने की शैलीय दृष्टि प्रदान की है. 

साहित्य और साहित्कार (कवि/ कविता) दोनों की वृद्धि के लिए स्वस्थ आलोचना आवश्यक है. आलोचना वस्तुतः तीन प्रश्नों का खुलासा करती है – ‘रचना क्या है,’ ‘वह कैसी है’ और ‘जैसी है – वह वैसी क्यों है?’ इस संबंध में प्रो. दिलीप सिंह व्यावहारिक आलोचना को अत्यंत आवश्यक मानते हैं जिसमें काव्य उपकरणों के सूक्ष्म निरीक्षण पर बल दिया जाता है. इस प्रकार की आलोचना प्रक्रिया के लिए अनिवार्य चरण हैं - वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन), विश्लेषण (एनालिसिस) तथा संश्लेषण (सिंथेसिस). रचना का गहन पाठ, भाषा का रूप सौंदर्य, भाषा-भाव का सामंजस्य और कवि कौशल – इन चरों को वे आलोचना के प्रमुख स्वीकृत अंग मानते हैं. कवि से आलोचना दृष्टि और आलोचक से कवि दृष्टि की अपेक्षा करते हुए प्रो. दिलीप सिंह यह प्रतिपादित करते हैं कि “कवि में अपनी ही सद्य रचित कविता को परखने की आलोचकीय दृष्टि और आलोचक में कवि-मन की संवेदना हो तो ‘आलोचना-कर्म’ और ‘कवि-कर्म’ को अतिरिक्त धार मिलती है. दोनों सुघड़ बनते हैं.” (पृ.36). इन सिद्धांतों के आधार पर प्रो. दिलीप सिंह ने आगे हैदराबाद के प्रमुख कवियों की कविताओं का सूक्ष्म विश्लेषण-विवेचन किया. इन समीक्षात्मक निबंधों में प्रत्येक निबंध का अपना निजी प्रारूप है. इन निबंधों में दुलीचंद ‘शशि’, ओमप्रकाश ‘निर्मल’, कमल प्रसाद ‘कमल’, राजा दुबे, इंदु वशिष्ठ, प्रतिभा गर्ग, नेहपाल सिंह वर्मा, मखदूम मोइनुद्दीन, नरेंद्र राय, शशि नारायण ‘स्वाधीन’, ऋषभ देव शर्मा, वेणु गोपाल, साकिब बनारसी, किशोरी लाल व्यास ‘नीलकंठ’ और बालकृष्ण शर्मा ‘रोहिताश्व’ की कविताओं का पाठ विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है. इनकी एक खास विशेषता यह है कि इनमें विवेच्य कवियों की रचनाशीलता के साथ साथ उन कवियों का व्यक्तित्व भी अनूठे रूप में उभर कर सामने आया है. 

‘कविता पाठ विमर्श’ में संकलित निबंधों को पढ़ते समय यह एक विशेष बात ध्यान खींचती है कि इस पुस्तक में प्रो. दिलीप सिंह का व्यक्तित्व रमा हुआ है. यहाँ उनके जीवन से संबंधित अनेक जानकारियाँ पाठक को प्राप्त होती हैं. वे जमीन से जुड़े साहित्यिक हैं. अपनी जमीन बनारस से उनका मोह उनके लेखन में भी झलकता है. इसका उल्लेख उन्होंने साकिब बनारसी के संदर्भ में किया है. यथा – “साकिब साहब के नाम के साथ लगे ‘बनारसी’ ने बरबस मुझे अपनी ओर खींचा है. मैं भी बनारस का हूँ. और बनारसी बांकपन और उसकी दार्शनिक गहराई दोनों मेरी आत्मा में बसे हैं – खाक भी जिस जमीं की पारस है, यार यह शहर वो बनारस है.” (पृ. 116). बनारसियों की तीन विशेषताओं को प्रो. दिलीप सिंह ने अपनी लेखमाला ‘कहाँ कहाँ से गुजर गया : किताबों के बहाने’ के एक लेख ‘लफ्टंट पिग्सन की डायरी’ में गिनवाया है – अक्खड़पन, फक्कड़पन और झक्कड़पन. ये तीनों गुण स्वयं प्रो. दिलीप सिंह में भी देखे जा सकते हैं. वे किसी भी विषय की जड़ तक पहुँचने में यकीन रखते हैं. वे जिनके साथ घुलमिल जाते हैं उनके हो जाते हैं. हैदराबाद के प्रति उनका विशेष रुझान है. यह पुस्तक उस रुझान की मिसाल है. हैदराबाद शहर के संबंध में उनकी टिप्पणियाँ यहाँ बिना कुछ कहे उद्धृत की जा रही हैं – 

Ø दक्षिण भारत के प्रवेश द्वार कहे जाने वाले शहर हैदराबाद.... (भूमिका, पृ. 9)

Ø इस शहर का मिजाज हिंदू-मुस्लिम एकता के सांस्कृतिक समन्वय से बना है. (भूमिका, पृ. 9)

Ø सामासिक संस्कृति की मिसाल है यह शहर. (भूमिका, पृ. 9)

Ø हैदराबाद में हिंदी, उर्दू और दक्खिनी में रचनाशीलता की समानांतर त्रिवेणी प्रवाहित है. बोलचाल में सभी दक्खिनी हिंदी का प्रयोग करते हैं – चाहे वे किसी भी भाषा-समुदाय के सदस्य हों. (भूमिका, पृ. 9)

Ø इस शहर में एक लंबे अर्से तक रहने का सौभाग्य मुझे मिला. यहाँ के अदीबों और अदबी शख्सियतों के नजदीक आने का और उन्हें ‘बिटवीन द लाइन्स’ पढ़ने का भी. (भूमिका, पृ. 10) 

Ø हैदराबाद में कविताई ज्यादा पनपी, वैचारिकता कम. कविता भी यहाँ एक मिश्रित अभिव्यक्ति का आधार लेकर फली-फूली, इसलिए नए-पुराने के बीच सीधी सीमा-रेखा यहाँ के काव्य यात्रा में खिंची नहीं दिखती. इसे हैदराबाद का वैशिष्ट्य भी कह सकते हैं. एक ओर दक्खिनी साहित्य के प्रेम सिक्त सामासिकता, उसका सूफियाना अंदाजे-बयाँ और उसकी भावात्मक तरलता हैदराबाद को विरासत में मिली, दूसरी ओर उर्दू शायरी के मंच और प्रगतिशील चेतना ने भी यहाँ के हिंदी कवियों में कम खदबद नहीं पैदा की. (पृ. 37)

Ø हैदराबाद की अच्छी रवायत हैं कि हिंदी के कवि और उर्दू के शायर एक ही मंच से समा बांधते हैं. होली-दीवाली-ईद-शबेरात पर साझा कवि-दरबार सजते हैं. सलाम है इस तहजीबी एकतानता को. (पृ. 117)

Ø हैदराबाद में ऐसा हुआ है, कि हिंदी-उर्दू की गंगा-जमुना इतनी शाइस्तगी के साथ एक-दूसरे से लेते-देते अरसों बहती चले. इसीलिए कोई अचरज यह देखकर नहीं होता कि हैदराबाद का हिंदी गीतकार, नवगीतकार, छंदमुक्त कवि, यहाँ तक कि आधुनिक चेतना से आप्लावित धूमिलीय अभिव्यंजना से प्रभावित कवि भी ‘ग़ज़ल’ कहने में संकोच नहीं करता. (पृ. 37)

Ø हैदराबाद में हिंदी कविता से जुड़े ज्यादातर कवि अपनी जड़ों से कटे आम लोग हैं – कविता इनके लिए बौद्धिक चर्चा या अभिजात्य दिखने की कोशिश का नाम नहीं है – भावनाओं को बांधकर कह सुना पाना, यह सदिच्छा रहती है यहाँ के कवियों की. शायद इसीलिए साहित्यिक मंच यहाँ कई हैं. (पृ. 38) 

Ø गोष्ठी और गंभीर चर्चा के बाद कविता पाठ एक जरूरी हिस्सा बन चुका है यहाँ. जिस ठसके और आत्मविश्वास के साथ स्त्री-पुरुष दोनों मंच को साधते हैं, ऐसा प्रेरक कविताई का माहौल शायद ही कहीं और मिले. (पृ. 38)

Ø ‘अजंता’ और ‘कल्पना’ जैसी दो ख्यातनाम पत्रिकाओं ने भी हैदराबाद की हिंदी साहित्यिक चहल-पहल को एक अरसे तक गरमाए रखा और इसे एक बोहेमियन तेवर दिया – ओमप्रकाश निर्मल और राजा दुबे ने. (पृ. 37)

Ø मुझे अच्छी तरह याद है जब मैं पहली बार हैदराबाद पहुंचा था (1979 ई.) तब दस दिन के भीतर चार अजाने लोग मुझ से एक के बाद एक मिलने आए थे – प्रो. श्रीराम शर्मा, डॉ. विष्णु स्वरूप, ओम प्रकाश निर्मल और इंदु वशिष्ठ. ये सभी मुझसे कहीं वरिष्ठ थे और अपनी-अपनी जगह पर स्थापित. उस समय मेरे लिए यह चौंकाने और स्तंभित कर देने वाला अनुभव था. अब विश्लेषण करता हूँ तो बात उतनी अनहोनी नहीं लगती कि ये सभी ‘हिंदी’ को एक परिवार की तरह देखने वाले लोग थे; इस परिवार का कोई ‘नौसिखिया’ उनके शहर में हिंदी का काम करने के लिए आया है, जानकर भी वे उससे खुद जाकर न मिलें, यह हो भी कैसे सकता था. कैसा था इनका मन, कैसे थे ये लोग? यह लिखते समय भी गला अवरुद्ध है और पलकें नम. (पृ. 64)

प्रो. दिलीप सिंह कहने मात्र के लिए समाजभाषावैज्ञानिक नहीं है, वे समाजभाषाविज्ञान को जीते भी हैं. मैंने तो उन्हें कभी भी किसी को भी ‘एकवचन’ में संबोधित करते हुए नहीं सुना. मुझ जैसे विद्यार्थियों को भी नाम के साथ ‘जी’ लगाकर संबोधित करते हैं. ‘जी’ तो उनके संबोधन का अनिवार्य अंग बन चुका है. उनके संबोधनों में सामाजिक मर्यादा और स्तर भेद के अनुरूप परिवर्तन द्रष्टव्य है. कवियों का परिचय देते हुए परस्पर संबंध की घनिष्ठता के अनुपात में उनकी शैली भी बदल जाती है. जैसे - 

Ø अपनी जड़ों से दूर अति सामान्य पेशे से संबद्ध हैदराबाद के कवि है – दुलीचंद ‘शशि. 

Ø कमल प्रसाद ‘कमल’ एक परिपक्व कवि हैं, सो उनमें एक ठहराव भी है. 

Ø प्रतिभा गर्ग सही मायनों में एक विदुषी महिला है. आभिजात्य उनके व्यक्तित्व से टप टप टपकता है. मुझे ‘डॉक्टर साहब’ संबोधित करती हैं तो निश्चित ही ‘आप’ सर्वनाम भी देती हैं मुझे; सकुचाता रहता हूँ मैं – पर उनकी शालीनता का कया करूँ? 

Ø राजा दुबे के पास भाषा की टकसाल है. 

Ø नरेंद्र राय अपनी आम भावनाओं को संजोने, उसे आम श्रोता तक पहुंचाने के लिए गंभीर के साथ हास्य रचनाएँ भी करते हैं. 

यहीं लगे हाथ, घनिष्ठता और आत्मीयता के सदर्भ भी देखते चलें - 

Ø इंदु जी हमारे बीच हैं – सक्रिय हैं – पर न जाने क्यों इधर थोड़ी खामोश हैं.(इंदु वशिष्ठ)

Ø बड़े प्यारे शख्स हैं – नेहपाल जी (नेहपाल वर्मा)

Ø ‘स्वाधीन’ अपने इसी नाम से पहचाना जाता है – शशि नारायण को कोई नहीं पूछता. आगे घुसकर तमाशा देखने वालों में से है, स्वाधीन. मुझे बहुत प्यारा लगता रहा है – स्वाधीन. (शशि नारायण ‘स्वाधीन’)

Ø ‘ऋषभ देव जी’ इसी तरह मैं उन्हें पुकारता हूँ. मान और स्नेह, दोनों भाव इस संबोधन में निहित हैं. ‘डॉक्टर शर्मा’ कहूँ तो मामला अति औपचारिक हो जाए और ‘ऋषभ’ बुलाऊँ तो बदसलूकी लगेगी. वे तो मुझे ‘डॉक्टर साहब’ या ‘सर’ ही कहते हैं और आदर बड़े भाई जैसा देते हैं. (ऋषभ देव शर्मा)

Ø एकाकी एहसास के दिनों में रोहिताश्व एक दोस्त की तरह सामने आया – जैसे लंगोटिया यार हो. रोहिताश्व ने हैदराबाद में मुझे एक भरापूरा परिवार दिया था. किन्हीं कोमल या संजीदा पलों में उसे ‘रोहित’ कहता हूँ. (बालकृष्ण शर्मा रोहिताश्व)

ये तो मात्र कुछ झलकियाँ हैं. हर निबंध को ध्यान से पढ़ें तो जैसा पहले कहा गया है, इनमें प्रो. दिलीप सिंह का अपना व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से नजर आता है. वे चीजों को कैसे देखते हैं, उनके बारे में कैसे सोचते हैं, अपनों से वरिष्ठ लोगों के साथ किस तरह व्यवहार करते हैं और छोटों पर किस कदर अपनत्व छलकाते हैं – यह सब इन निबंधों में निहित व्यक्ति चित्रों से जाना जा सकता है. इन निबंधों के माध्यम से उन्होंने कवियों की तथा उनकी कविताओं की खूबियों को गिनाया है साथ ही चुटकी भी ली है, पर बड़े सलीके से ताकि घाव न करे गंभीर. देखिए – 

Ø शशि नारायण ‘स्वाधीन’ : शहर में ढेरों शरारतें उसके नाम दर्ज हैं. स्थानीय रचनाकारों के ‘किस्से’ फैलाने के लिए वह खासा बदनाम है. वह करे भी क्या, लिजलिजे, सिल्की और चिकने-चुपड़े लेखक उसे ज़रा भी बर्दाश्त नहीं. मनमानी करने की हठ पाले चलता है. (पृ. 96).

Ø बालकृष्ण शर्मा ‘रोहिताश्व’ : हद दर्जे का शरारती, चुलबुला और मुंहफट है रोहिताश्व. हैदराबाद में उसकी जान-पहचान का शायद ही कोई ऐसा बचा हो जिसे उसने एक निकनेम से न नवाजा हो. लोगों की शारीरिक बनावट, सोच, साहित्यिक रुझान और आचरण को देख-ताड़ कर वह ये नाम उन्हें बख्शता है. (पृ. 132)

Ø नेहपाल सिंह वर्मा : कवि-सम्मेलनों के वे संचालन-विशेषज्ञ हैं. मंदिरों-मठों से लेकर नाव-नदी तक, वे पल भर में कवि-गोष्ठियाँ कर दिखाते हैं. हैदराबाद में न जाने कितने कवि उन्होंने बनाए-संवारे (और बिगाड़े भी). (पृ. 75) 

किसी की अहैतुक सराहना करना बहुत ही मुश्किल काम है. लेकिन प्रो. दिलीप सिंह ने इन कवियों के व्यक्तित्व के साथ उनके कृतित्व को भी सराहा है ‘कविता पाठ विमर्श’ के माध्यम से हैदराबाद के इन 15 कवियों के काव्य की विवेचना द्वारा उन्होंने पाठ-विमर्श के 15 अलग-अलग मॉडल प्रस्तावित किए हैं. एक एक मॉडल पर विस्तार से चर्चा को फिलहाल भविष्य के लिए मुल्तवी करते हुए मैं इन निबंधों से एक-एक स्थापना-उक्ति उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ. इनसे प्रो. दिलीप सिंह का कवित्व-विवेक सहज प्रमाणित होता है. यथा – 

Ø दुलीचंद ‘शशि’ ने अधिकांश काव्यपाठों में कोमल अभिव्यंजना के लिए दो अभिव्यक्ति रूपों या भाषा प्रकार्यों को प्रमुखता दी है. एक तो सुहाग और दूसरे कृष्ण राधा. गीतों की रचना में जब अभिव्यंजना के सूत्र खोने लगते हैं तब ये प्रकार्य कवि की अनुभूतियों का हाथ पकड़कर उसे तरंगायित करते हैं. (पृ. 39)

Ø निर्मल की कविताओं में मूलतः दर्द और स्मृतियाँ बसी हैं. कहीं ‘धूमिलीय’ अभिव्यंजना भी है. पर हर प्रकार की कविता में हिंदू-उर्दू मिश्रित भाषा का मचलता प्रवाह है. निर्मल ने हैदराबाद की हिंदी कविता को नई भाषा दी, नए भाव-बोध दिए और दिया तरह-तरह से बात कहने का ढंग. (पृ. 48)

Ø कमल प्रसाद ‘कमल’ संवाद पैदा करने वाले कवि हैं अतः संबोधनों की उनके यहाँ छटा बिखरी है.... (पृ. 53) 

Ø राजा दुबे की कविताओं में प्रेम, स्मृति और बिछोह के साथ-साथ एक भाव बेवफाई का भी आ जुड़ा है. इसी कारण उनका ‘प्रेम पाठ’ प्रेम की कोमल अनुभूति से प्रतिशोध तक की यात्रा कर आता है. इससे कुछ समाजी सच भी खुलते हैं. (पृ. 59) 

Ø स्मृति, कल्पना, प्रेम और दर्द की संश्लिष्टता से उपजा इंदु वशिष्ठ का कविता-पाठ आशा और निराशा की एक ऐसी धारा प्रवाहित करता है जिसमें ‘मन’ केंद्र में है. (पृ. 65)

Ø ‘काव्यार्चन’ के कविता-पाठ में ‘तुम’ या संबोधित की भूमिका केंद्र में है. प्रेम और समर्पण, संयोग और वियोग, आशा और निराशा के भावबोध में लिपटे इस पाठ में इसलिए भोक्ता या प्रेषक (addressee) ‘मैं’ भी है, कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप में. (पृ. 71) 

Ø एक ‘उप-पाठ’ असंतोष और अवसाद का अलग से भी बनाता है जिसमें असहनीय यथार्थ को वे मात्र सूंघते नहीं, देखा भी पाते हैं; काफी नजदीक से. इसीलिए इस पाठ में ब्योरों की अंतहीन रेखा खिंची दीखती है. इस प्रकार की कविताओं में उन्होंने अपने आस-पास बिखरे असंतोष को ढूँढ़ने की कोशिश की है. उनकी यह चेतना हैदराबाद के छायावादी, प्रेम पगी कविता के माहौल में परवान चढ़ी, यह बात रेखांकित होनी चाहिए. शायद यही वजह है कि जब उन्होंने प्रेम गीत लिखने चाहे तो पटरी नहीं बैठी. यह बात अलग है कि इस ‘उप-पाठ’ में यथार्थ और सच्चाई के संप्रेषण के रास्ते भावुकता भी प्रच्छन्न रूप से कहीं-कहीं आ गई है – पर वह पक्ष अलग से चर्चा का है. (पृ. 77)

Ø शब्दों का अर्थ उनके सह-प्रयोग पर भी निर्भर करता है. ऐसा करके ही कवि शब्द के रूप, रंग यहाँ तक कि आकार को भी देख पाटा है. मखदूम के ‘कविता-पाठों’ में उनकी यह ताकत अनेक स्तरों पर उजागर हुई है. एक ओर उन्होंने मनोभावों, जड़पदार्थों, प्राकृतिक उपादानों का मानवीकरण करने में शब्दार्थ की गहराई को सह-प्रयोग द्वारा साधा है. (पृ. 85)

Ø नरेंद्र राय ने मुहावरों का व्यंजक प्रयोग किया है. बने-बनाए सांचे उन्होंने बरकरार भी रखे हैं और कभी-कभार उन्हें तोड़ा भी है. भाषा के प्रवाह और भावनयन में इनका प्रयोग हुआ है अतः ये ओढ़े हुए भी नहीं लगते, हाँ, कहीं-कहीं सपाट जरूर हो गए है. (पृ. 93) 

Ø स्वाधीन की काव्य-भाषा की बुनावट में कवि की संलग्नता का भी कम हाथ नहीं है. कविताओं में कवि बराबर मौजूद है – पार्श्व में तो है ही – आमने-सामने भी है. (पृ. 100) 

Ø अपने विचारों को स्वर देने में ऋषभ की कविताएँ यह सुखद एहसास कराती हैं कि यहाँ लिखी भाषा और बोली जाने वाली भाषा का अंतर कम से कम है. तभी तो संप्रेषणीयता के मूल धर्म का निर्वाह वे कर पाते हैं. (पृ. 106) 

Ø वेणु का पाठ ज्यादा कठिन और विकल कविता का पाठ है. इसे कठिन और विकल बनाता है – युग सत्य. इस बेतहाशा बदरंग होते सच की अभिव्यक्ति लोक लय और स्वप्निल-कोमल शब्दावली से नामुमकिन है. अतः यह पाठ गद्य-भाषा की व्यंजना का भी खुलकर इस्तेमाल करता है. (पृ. 114) 

Ø एक ग़ज़ल में विशेषण निपात (एडजेक्टाइवल पार्टिकल) के दो रूपों का सार्थक प्रयोग हुआ है, पंक्तियाँ हैं – ‘गम ज्यादा खुशी जरा-सी है/ जिंदगी क्या है इक सजा-सी है/ इक जरा-सा उदास क्या है दिल/ सारी दुनिया खफा-खफा-सी है.’ सजा-सी और खफा-खफा-सी में निपात साम्य (रिजेंबीलेंस) को दर्शाता है – सजा नहीं, सजा की तरह का कुछ या खफा नहीं खफा जैसा कुछ. खास बात यह कि निपात के प्रयोग से जिंदगी सजा है और दुनिया खफा है जैसी बाह्य-संरचना (सरफेस स्ट्रक्चर), गहन संरचना (डीप स्ट्रक्चर) में रूपांतरित हो गई है जिससे अर्थ में भी रंजकता (इंटेंसिटी) आ गई है. खुशी जरा-सी और जरा-सा उदास में निपात-सा परिणामात्मक विशेषण (क्वांटिटेटिव एडजेक्टिव) से जुड़कर आया है. इस तरह के प्रयोग अधिक को और अधिक (बड़ा-बड़ा-सा) तथा कम को और कम (थोड़ा-थोड़ा-सा) करने की सामर्थ्य रखते हैं. साकिब की पंक्तियों में जरा-सी, जरा-सा का सटीक प्रयोग हुआ है. सूक्ष्म अर्थच्छावियों को उभरने में इस तरह के भाषिक तत्व अत्यंत सहायक होते हैं, और साकिब इस बात को जानते हैं. (पृ. 120)

Ø जंगलों के गाने दो-1 कविता अपनी संरचना में जितनी सरल है, प्रभावोत्पादकता में उतनी ही प्रखर है. शीर्षक के साथ ‘ताकि, जिससे कि, और कि’ के संयोजन से कवि ने अपनी इच्छा-आकांक्षा को ही नहीं, काव्य के उद्देश्य और भाव को भी अभिव्यक्त करने का यत्न किया है. क्रिया-रूपों का नैरंतर्य-भाव तथा विशेषणों का क्रियापरक और मूल रूप भी इस कविता के पाठ को आत्मीय बनाता है. (पृ. 125)

Ø रोहिताश्व की कविताएँ उसके जीवन के अत्यंत निकट हैं. वह जीवन जो समाजी कारणों से आपदाग्रस्त है – विवश और लाचार भी है; पर जिसे अपने आप पर भरोसा है और जो लड़ना-टकराना जनता है. (पृ. 139) 

अंततः यह कहना आवश्यक है कि इस तमाम पाठ विमर्श में प्रो. दिलीप सिंह ने जहाँ एक ओर शैलीय उपकरणों का सफलतम अनुप्रयोग करके दिखाया है वहीं शैली को समाजभाषा और मनोविज्ञान के साथ जोड़कर पाठ विश्लेषण के मौलिक और अभिनव प्रतिमान निर्मित किए हैं जो हिंदी में समाज-शैलीवैज्ञानिक साहित्य समीक्षा की नई प्रणाली का सूत्रपात करते दिखाई देते हैं. उनके इस गहन कवित्व-विवेक के संबंध में यही कहा जा सकता है कि “अस बिबेक जब देइ बिधाता. तब तजि दोष गुनहिं मन राता.” (रामचरितमानस, तुलसीदास) 

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