बुधवार, 17 जून 2015

खोज

बालकनी में बैठकर
आसमान को ताकना कितना भला लगता है!
अभी कल की ही बात है,
काले काले बादलों को देख
रोमांचित हो उठी थी मैं.

अचानक बिजली चमक उठी
कभी दाएँ - कभी बाएँ.
मेरा दिल धड़क सा गया.
तुम्हें ढूँढ़ने लगी.
ढूँढ़ने से तुम कभी नहीं मिलते,
कल भी नहीं मिले.

तुम ठहरे बादल
कभी यहाँ बरसे कभी वहाँ
कभी धरती की प्यास बुझाई
कभी पर्वत शृंखलाओं से खेले

वर्षा थम गई
आज वातावरण शांत है
धूप खिल आई है
मेरा मन भरा है कोलाहल से
तुम्हें ढूँढ़ रही हूँ हर दिशा में
ढूँढ़ने से तुम कभी नहीं मिलते,
आज भी नहीं मिले!

बगिया फूल उठी है
मैं तुम्हें ढूँढ़ रही हूँ
भँवरा कलियों पर मंडरा रहा है
फूलों का रस पी रहा है.
यह तुम्हीं तो नहीं?
तुम्हें ढूँढ़ रही हूँ
गली-गली कली-कली
ढूँढ़ने से तुम कभी नहीं मिले.
कभी तो मिलो -
खुद ढूँढ़कर! 

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