शनिवार, 2 दिसंबर 2017

प्रवासी कथाकार देवी नागरानी की मूल्य चेतना

अविभाजित भारत के कराची में ईस्वी सन 1941 में जन्मी देवी नागरानी मूलतः सिंधीभाषी प्रवासी हिंदी साहित्यकार हैं. उनके परिवार को 1947 में विभाजन की त्रासदी के कारण विस्थापित होना पड़ा जो अनेक पड़ावों को पार करते हुए दक्षिण भारत में हैदराबाद में बस गया. वहीं स्कूल और कॉलेज स्तर की शिक्षा प्राप्त की. फिर अध्यापन से जुड़ गईं - पहले मुंबई, फिर शिकागो और अंत में न्यू जर्सी. देवी नागरानी ने जिंदगी के हर मोड पर कुछ न कुछ सीखा है. वे हर नए अनुभव को नया जन्म मानने वाली लेखिका हैं. उन्होंने जीवनानुभवों की रोशनी में अपने भीतर की सृजनात्मक शक्ति को पहचाना. अलग-अलग पडावों के बसने-उखाड़ने-फिर बसने की जद्दोजहद के दौरान ‘’कुछ सीखा कुछ सिखाया – कुछ के लिए मायस्त्रा (मास्टरनी) बनी, कुछ मेरे गुरु बन गए.” (ई-कल्पना). और इस तरह देवी नागरानी शिक्षक के रूप में न्यू जर्सी के विद्यार्थियों को हिंदी भाषा के साथ-साथ भारतीय दर्शन और संस्कृति से भी परिचित कराने लगीं. 

देवी नागरानी का व्यक्तित्व सौम्य है. वे मृदुभाषी हैं और उनकी सोच सकारात्मक. उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं दीखता. हर पड़ाव पर जो अनुभव प्राप्त किए उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने साहित्य को माध्यम बनाया. इस संदर्भ में उनका यह मत उल्लेखनीय है – “1972 से टीचर होने के नाते पढ़ती-पढ़ाती रही हूँ और सही मायनों में जिंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते हैं. कलम तो मात्र एक जरिया है, अपने अंदर की भावनाओं को भी समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का. इसे मैं रब की देन मानती हूँ, शायद इसलिए, जब हमारे पास कोई नहीं होता तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है.” (वही). 

यों तो देवी नागरानी की सबसे प्रिय विधा गज़ल है. सिंधी और हिंदी में उनके कई मौलिक गज़ल संग्रह प्रकाशित हैं. ‘चरागे-ए-दिल,’ ‘दिल से दिल तक,’ ‘लौ दर्दे दिल की,’ ‘दीवाने-ए-दिल से,’ ‘सहन-ए-दिल मंजरे आम पर होगा’ आदि हिंदी गज़ल संग्रह हैं तो ‘गम में भोगी खुशी,’ ‘गज़ल’ और ‘आस की शम्अ’ आदि सिंधी के. गज़ल को वे अपनी सखी मानती हैं और कहती हैं, “कलम मेरी तन्हाइयों का साथी और गज़ल मेरी सखी! इनके संग सफर करते मेरे भीतर की नारी ने थपेड़े झेलने के बाद बसना, निखरना और महकना सीख लिया है. अब कभी गद्य लिखना शुरू करती हूँ तो पद्य का स्वरूप उसमें झाँकता हुआ नज़र आता है. यह भी लेखन कला का एक अंश है.”(वही). लेकिन कहानी लिखने में भी उनका मन खूब रमता है. सिंधी में लिखी हुई अपनी मौलिक कहानियों का हिंदी में तथा हिंदी की कहानियोँ का सिंधी में वे स्वयं अनुवाद करती हैं. वे अनेक संस्थानों एवं संगठनों द्वारा राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मानों तथा पुरस्कारों से भी सम्मानित एवं पुरस्कृत हो चुकी हैं. 

देवी नागरानी साहित्य की सामाजिक प्रयोजनीयता की पक्षधर हैं. वे उस साहित्य को उत्कृष्ट मानती हैं जो जीवन पथ पर आती-जाती हर क्रिया को पहचानने में पाठक की मदद कर सके और साथ ही उसके भीतर उचित-अनुचित का विवेक जगा सके. उनके अनुसार साहित्यकार का उद्देश्य यह भी होता है कि अपनी लेखनी के माध्यम से पाठकों को भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने के लिए बाध्य करे तथा उच्च मूल्यों को स्थापित करे. वे साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने की हिमायती हैं. उनकी यह मनुष्यकेंद्रित मूल्य दृष्टि उनकी कहानियों में भी गुंथी हुई है जो एक प्रवासी भारतीय साहित्यकार की भारतीय मूल्यों के प्रति सजगता का जीवंत प्रमाण है. स्पष्ट है कि साहित्यकार तो प्रवासी हो सकता है लेकिन साहित्य नहीं. न्यू जर्सी में रहते हुए भी देवी नागरानी का मन भारतीय है. उनकी कहानियों में पाश्चात्य एवं भारतीय परिवेश का द्वंद्व तो है ही, साथ ही भारतीय जीवन दर्शन और भारतीय संस्कृति विद्यमान है. 

देवी नागरानी की लघुकथओँ और कहानियों को पढ़ने से पता चलता है कि वे अपने परिचित परिवेश से विषयवस्तु का चयन करती हैं तथा तदनुरूप पात्रों का सृजन करती हैं. उनकी हर कहानी मूल्यकेंद्रित है जिससे अमेरिका में बसी लेखिका के भारतीय मानस का पता मिलता है. इस मानस की जड़ें भारतीय जीवन दर्शन, अध्यात्म और मूल्यकेंद्रित भारतीय संस्कृति में निहित हैं. देवी नागरानी बार-बार इस बात को रेखांकित करती हैं कि पाठक की मानसिकता एवं समाज की उपयोगिता को दृष्टि में रखकर साहित्य का सृजन करना अनिवार्य है ताकि पाठक की बौद्धिकता का विकास हो और स्वस्थ समाज का निर्माण हो. वे भारतीय एवं पाश्चात्य परंपरा में निहित मूल्यों का समन्वय करती हैं क्योंकि पाश्चात्य परंपरा ऐहिक, सामाजिक एवं बुद्धिवादी है तो भारतीय मूल्य चिंतन आध्यात्मिक अनुभूति में निहित है. 

देवी नागरानी मानती हैं कि आज बाजारवाद ने मनुष्य को इतना प्रभावित कर दिया है कि वह बाजार के हाथों कठपुतली बनता जा रहा है. उसके लिए सब कुछ बिकाऊ है, यहाँ तक कि स्वयं मनुष्य और उसकी भावनाएँ भी. बाजारवादी मानसिकता ने स्त्रियों की स्थिति को दयनीय बना दिया है. वह केवल भोग्या बन गई है. संवेदनशील साहित्यकार स्त्री के वस्तुकरण को सह नहीं सकता. देवी नागरानी की कहानी ‘शिला’ की केंद्रीय पात्र शिला समीर के प्यार में अंधी होकर अपनी पढ़ाई छोड़कर उससे विवाह करके लेती है, लेकिन समीर तूलिका पर रंग बिखेरकर उसकी तस्वीरों को सजाता था और सुंदरता के दीवाने उन तस्वीरों को खरीदते थे. समीर को दौलत का नशा चढ़ता गया और शिला “किसी पत्थर की मूर्ति की तरह उसकी प्रेरणा बनकर घंटों उसके सामने बैठती” (देवी नागरानी (2016), शिला, ऐसा भी होता है, दिल्ली : शिलालेख, पृ. 31). समीर उसे “एक निर्जीव रंग-बिरंगी पेंटिंग समझ कर स्वार्थ की वेदी पर चढ़ाने के नए रास्ते ढूँढ़ता रहा.” (वही). देवी नागरानी स्त्री की इस स्थिति से विचलित होती हैं. वे बार-बार यह प्रश्न करती हैं कि “क्या पुरुष प्रधान समाज में औरत अपनी कोई पहचान नहीं पाती?”( नई माँ, ऐसा भी होता है, पृ. 175). वे इस बात को रेखांकित करती हैं कि स्त्री को अपनी निर्णयात्मक सोच और भावनाओं पर पूरा अधिकार होना चाहिए. 

बदलते जीवन मूल्यों के कारण स्त्री की स्थिति दयनीय होती जा रही है. इस समाज में स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है. उसको मात्र देह मानकर उसके साथ जानवरों की तरह व्यवहार किया जा रहा है. ‘खून की होली’ शीर्षक कहानी की सलोनी को कुछ दरिंदे नोचकर, कुचलकर लावारिस की तरह उसकी लाश को बेरहमी से फेंक जाते हैं. सलोनी, आयशा, आरुषी, निर्भया और न जाने कितनी लड़कियों को गिद्धों का शिकार होना पड़ेगा? देवी नागरानी पाठकों के समक्ष प्रश्न उठाती हैं कि “क्या हसीन होना अभिशाप है? क्यों सौंदर्य को कुचलकर मसला जाता है, रौंदा जाता है, फूल की तरह?” (खून की होली, ऐसा भी होता है, पृ. 81). आगे वे यह भी टिप्पणी करती हैं कि देह का सौदा करने वाले दरिंदे अपने ज़मीर को ज़िंदा कहाँ रख पाते हैं! वे यह भूल जाते हैं कि उन्हें जन्म देने वाली माँ भी स्त्री है. (वही, पृ. 84). प्रायः स्त्री को किसी और की गलती के कारण समाज में अपमानित होना पड़ता है, ठोकर खानी पड़ती है. गरीब स्त्री की स्थिति तो और भी सोचनीय है क्योंकि पुरुष की नजरें हर वक्त उसका पीछा करती रहती हैं. जब वह अपने अधिकारों की माँग करने लगती है तो तोहमत के सिवाय उसे कुछ हाथ नहीं लगता. ‘वसीयत’ कहानी की दुर्गावती की माँ उसे पिता का नाम दिलाने के लिए आँचल फैलाती है तो वह “वासना का दरिंदा, लफ्जों से रिश्ते तोलता रहा, तोहमत पर तोहमत लगाता रहा, पर माँ की झोली में अपने ही बच्चे के लिए पिता का नाम तक न डाल सका.” (वसीयत, ऐसा भी होता है, पृ. 74). गलती चाहे किसी की भी हो लेकिन यह संकीर्ण समाज स्त्री को ही दोषी ठहराता है, उसे ही सजा देता है.

स्त्री-सम्मान रूपी उदात्त जीवनमूल्य के क्षरण से लेखिका अत्यंत क्षुब्ध प्रतीत होती हैं. गरीबी के कारण कई लड़कियों का जीवन समय से पहले ही समाप्त हो जाता रहा है. उनके सुनहरे सपने चकनाचूर होते रहे हैं. भले ही जमींदारी प्रथा समाप्त हो चुकी है लेकिन आज भी समाज में गरीबों को कर्ज के तले दबकर बेटियों का सौदा करना पड़ रहा है. इसी बात को ‘सज़ा या रिहाई’ (पृ.66) शीर्षक कहानी में रेखांकित किया गया है. भले ही हम कह लें कि यह समय स्त्री सशक्तीकरण का समय है लेकिन इस तथ्य से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि आज भी यह समाज स्त्री को कमतर ही आँकता है. अकेली स्त्री को देखकर पुरुष भेड़िया बन जाता है. रक्षा करने के बजाय निरीह स्त्री की अस्मत को पुलिस ही दागदार बना दे तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? इसी बात को ‘जंग जारी है’ (पृ. 53) शीर्षक कहानी के माध्यम से उकेरा गया है. अनेक स्त्रीवादी विमर्शकार और साहित्यकार स्त्री मुक्ति को लेकर अनेक बातें करते हैं लेकिन स्त्री मुक्ति केवल अपने शरीर पर अधिकार होने तक सीमित नहीं है. यह तो केवल प्राथमिक चीज है. असली चीज है स्त्री के मानवाधिकार. जर्मेन ग्रीयर भी यही कहती हैं कि स्त्री मुक्ति का अर्थ यदि मरदाना भूमिका अपनाना लगाया जाए तो बर्बादी के अलावा कुछ नहीं. (बधिया स्त्री, पृ. 106). मानवाधिकारों के इस संघर्ष में स्त्री-पुरुष के बीच प्रतियोगिता नहीं सद्भाव होना चाहिए. 

आज समाज में मूल्यहीनता चरम पर है. रिश्ते भी मूल्य खोते जा रहे हैं, खोखले होते जा रहे हैं. रिश्तों को जबरन निभाया नहीं जा सकता. यदि ऐसी स्थिति आ जाए तो जिंदगी बोझ बन सकती है. इस दृष्टि से ‘और मैं बड़ी हो गई’, ‘रिश्तों की उलझन’, ‘नई माँ’, ‘बेमतलब के रिश्ते’, ‘आखरी पड़ाव’, ‘सजा या रिहाई’ और ‘वसीयत’ उल्लेखनीय कहानियाँ हैं. देवी नागरानी ने इन कहानियों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि रिश्ते-नाते एक दिन में नहीं बनते, इन्हें न ही किसी पर थोपा जा सकता है और न ही जबरन निभाया जा सकता है. वे यह चिंता व्यक्त करती हैं कि आज की बाजारवादी संस्कृति के कारण “रिश्तों का टूटना और जुड़ना एक व्यावहारिक चलन-सा बन गया है.” (नई माँ, ऐसा भी होता है, पृ. 172). जो रिश्ते स्वयं को गुमराह होने से नहीं बचा पाते, ऐसे रिश्ते भावी पीढ़ी को क्या पहचान दे पाएँगे? ‘वसीयत’ शीर्षक कहानी के माध्यम से लेखिका ने यह स्पष्ट किया है कि “रिश्तों में अगर निभाने से ज्यादा झेलने तक की नौबत आ जाए, तो मुलायम रिश्तों में नागफनियाँ उग आती हैं.” (वसीयत, ऐसा भी होता है, पृ. 79) तथा “रिश्तों की बुनियाद भी एक ऐसे ही मधुर व शबनमी प्यार की मोहताज होती है, जो अपनेपन के छुहाव से आलिंगन में ले ले, जो मर्यादा की सीमाओं में रहकर घर के भीतर-बाहर सुकून भर दे, और राहत भरी दुआओं से उस आँगन को गुलशन बना दे.” (वही, पृ. 71), “जो रिश्ते भेद भाव की दलदल में धँसकर कुरूप हो जाते हैं, उनकी बदबू साँसों में घुटन पैदा कर देती है.” (आखरी पड़ाव, ऐसा भी होता है, पृ. 62). 

आज का समय मानव सभ्यता के इतिहास में अब तक का सबसे जटिल समय है. जटिल इसलिए कि रिश्ते-नातों से भी व्यापार किया जा रहा है. यहाँ तक कि माँ की ममता को भी मुनाफे की दृष्टि से ही देखा जा रहा है. जब तक माता-पिता से आर्थिक लाभ हो तब तक ही बच्चे उनकी सुन रहे हैं. माता-पिता को सिर्फ धन कमाने के यंत्र के रूप में ही देख रहे हैं. जैसे ही वृद्धावस्था दस्तक देने लगती है वैसे ही उन्हें घर की दहलीज से वृद्धाश्रमों की दहलीज तक का सफर करना पड़ता है. इस स्थिति पर आक्रोश व्यक्त करते हुए देवी नागरानी कहती हैं कि ऐसा सफर “एक कसैलेपन का स्वाद मुँह में भर देता है. उम्र भर जिस वृक्ष की शाखों से घर-आँगन फला-फूला, आज वही आधार निराधार, बिना परिचय खड़ा है. माना उम्र की पगडंडी बड़ी ही संकरी है, यह भी माना कि इस दौर और उस दौर में दरार जब चौड़ी हो जाती है तो एक गहरे खालीपन को महसूस किया जाता है. इसी फासले को पाटने के लिए ममता को स्वार्थ की ईंटों में चुनवा दिया जाता है.” (वही, पृ. 59). समाज में दिन-ब-दिन मानवता का क्षरण होता जा रहा है. पाशविकता, अमानवीयता चरम पर है. भाषा, जाति, वर्ग, संप्रदाय, नस्ल, वर्ण आदि के नाम पर केवल देश ही नहीं बँट रहा है बल्कि मानवीयता भी बँट रही है. जिंदगी बँट गई, मनुष्य बँट गया है, ममता बाँटी जा रही है, हर चीज को टुकड़ों में बाँटकर बाजार में बेचा जा रहा है. देवी नागरानी कहती हैं कि “वृद्धों को हाशिए पर ले जाने का पहला कारण है समाज में पारिवारिक संस्था के संदर्भ में सोच का बदलाव.” (वही, पृ. 64). वे यह प्रश्न करती हैं कि जहाँ दो पीढ़ियाँ एक छत के नीचे रहती हैं वहीं तीसरी बुजुर्ग पीढ़ी क्यों नहीं रह सकती? यह हर किसी को सोचना चाहिए क्योंकि वार्धक्य से कोई नहीं बच सकता. 

निःसंदेह कोई साहित्य, कोई विमर्श ऐसा मूल्य नहीं गढ़ता जिससे समाज के दो अनिवार्य वर्ग परस्पर शत्रु बन जाएँ. देवी नागरानी की कहानियों में यदि बार-बार मनुष्यता, आदमीयत, इंसानियत आदि शब्दों का प्रयोग पाया जाता है तो यह स्वाभाविक ही है. इससे यही स्पष्ट होता है कि वे मानवता को महत्व देती हैं तथा मनुष्य और मनुष्य के बीच पाशविकता को समाप्त करना चाहती है. उनके कुछ प्रयोग देखें – “आदमीयत दलों में विभाजित हो रही है, देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं, जी रहे हैं, भोग रहे हैं, पर कुछ कर नहीं पा रहे हैं? (आख़री पड़ाव, ऐसा भी होता है, पृ. 63). “इंसानियत का पाठ पढ़ने वाले इंसानों के दिलों के रोशनदान खुले रहे, अँधेरा छँट गया, रोशन जमीर जगमगा उठे!” (वसीयत, ऐसा भी होता है, पृ. 80). “मानवता शायद यहीं चूक जाती है कि उनको जन्म देने वाली नारी उनके घरों की धरोहर है.” (वही, पृ. 84), “मानवता जहाँ अपने अर्थों पर पूरी नहीं उतरती शायद वहीँ जवाबदारी का अंत हो जाता है.” (घुटन भरा कोहरा, ऐसा भी होता है, पृ. 127). ‘आदमीयत/ इंसानियत/ मानवता’ और भी अनेक स्थलों पर पुनरावृत्ति से पता चलता है कि मानव-मूल्य लेखिका की चिंता का मूल विषय है. 

भारतीय संस्कृति मूलतः धर्मं और अध्यात्म केंद्रित है. धर्म और अध्यात्म का अभिप्राय यहाँ पूजापद्धति और संप्रदाय विशेष नहीं, बल्कि कर्तव्य से है जिसमें आचरण की पारदर्शिता निहित है. भौतिकतावाद अपने आकर्षण के बावजूद प्रवास में भी भारतीय मानस को अध्यात्म के संस्कार से विलग नहीं कर पाता क्योंकि “हमारे संस्कार हमारी नींव हैं जिनकी जड़ें बहुत मजबूत हैं, इसलिए आसानी से यहाँ की रोशन राहें हमें बहुत जल्दी गुमराह नहीं कर पातीं. शायद हर हिंदुस्तानी की यही प्रतिक्रया हो, क्योंकि हमारी सभ्यता, संस्कृति परिवार से शुरू होकर परिवार पर खतम होती है.” (बेमतलब के रिश्ते, ऐसा भी होता है, पृ. 22). भारतीय संस्कृति कुटुंब संस्कृति है. संयुक्त परिवारों को महत्व देती है. इसके विपरीत पाश्चात्य संस्कृति व्यक्ति केंद्रित है. भारतीय संस्कृति भोग का विरोध नहीं करती बल्कि यह संदेश देती है कि भोग में भी विवेक का होना आवश्यक है. इसीलिए विवाह संस्था को महत्व दिया जाता है और दांपत्य को जन्मों का संबंध माना जाता है. वहीँ पाश्चात्य संस्कृति में परिवार और विवाह को बंधन या अनुबंध माना जाता है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधक सिद्ध होते हैं. विवाह के स्थान पर सहजीवन को भी वहां व्यापक स्वीकृति प्राप्त है. ‘बेमतलब के रिश्ते’ कहानी की क्रिस्टी तीन वर्षों तक अपने पुरुष-मित्र के साथ सहजीवन कायम रखती है और उसके बच्चे की माँ बन जाती है. क्रिस्टी की दोस्त रमा बच्चे के बारे में जानकर जब शादी की बात करती है तो क्रिस्टी कहती हैं, “शादी करना कोई ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, और न ही मैं यह उम्मीद रखती हूँ कि वह मेरे इस बच्चे का बाप बनता फिरे या मेरा पति होने का दावा करे. मैं आजाद हूँ, आजाद रहना चाहती हूँ, कोई नया बंधन मुझे जकड़े यह मुझे मंजूर नहीं.” (वही). रमा क्रिस्टी के इस जवाब से आहत हो जाती है क्योंकि विदेश में रहने के बावजूद रमा की सोच भारतीय ही है और वह भारत की सभ्यता-संस्कृति से गहरे जुड़ी हुई है. भारतीयों की भावनाएँ परिवार और परिवेश से जुड़ी रहती हैं. देवी नागरानी टिप्पणी करती हैं कि “आजाद देश के आजाद लोगों को हर तरह की आजादी है, पर आजादी का सही इस्तेमाल करना पाबंदी के दायरे में होता है. जंजीरों की जकड़न से आजाद होकर हम फिर भी कितने गुलाम रहते हैं, अपनी ख्वाहिशों के, अपने मन की आशाओं और आकांक्षाओं के, और इसी आजादी की कीमत भी हमें उतनी ही बड़ी चुकानी पड़ती है. आजादी का दूसरा छोर है बंधन, और बंधन की परिधि में रहकर जो आजादी हम इस्तेमाल करते हैं, चाहे वह शरीर से जुड़ी हो या मन से, वह हमारे अस्तित्व को अच्छे बुरे तजुर्बों से सजाकर परिपक्वता बख्शती है.” (वही, पृ. 23-24). पाश्चात्य संस्कृति में एक-दूसरे के पार्टनर्स को बदलने को भी गलत नहीं बल्कि फैशन और सभ्यता माना जाता है. मनोरंजन के तौर पर लोग देर रात की पार्टियों में यह सब करते ही रहते हैं. इसी बात को ‘आजादी की कीमत’ शीर्षक कहानी में उकेरा गया है. (वही, पृ. 88). 

देवी नागरानी की कहानियों में स्त्री की बेबसी, वस्तुकरण, अकेलेपन, द्वंद्व, आक्रोश, आत्मविश्वास, जिजीविषा आदि के वैविध्यपूर्ण पाठ निहित हैं तथापि इन कहानियों का केंद्रबिंदु ‘मूल्य’ है. हर सरोकार को मूल्य की दृष्टि से ही उकेरा गया है. कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं – 

(1) स्त्री की बेबसी का पाठ  
  •  उसकी मुस्कुराहट पर भी कर्फ़्यू लाफा हुआ है. (ऐसा भी होता है, पृ. 18). 
  •  चाहे-अनचाहे अहसासों के साथ जीना पड़ता है, कहीं कहीं तो अक्सर धक्के मारकर जिंदगी की गाड़ी को चलाना पड़ता है. (और मैं बड़ी हो गई, ऐसा भी होता है, पृ. 40). 
  •  माँ कुछ कह न पाई, शायद उसे हर आहट पर एक अनचाहा डर सामने आता हुआ नज़र दिखाई दे रहा है. (वही, पृ. 42).
  •  ये कहाँ का इंसाफ है कि मैं अपने बच्चे को देख नहीं सकती? देखते हुए उसे छू नहीं सकती? उसके मुलायम शरीर को महसूस नहीं कर सकती? उसे अपने आलिंगन में भर नहीं सकती, क्यों, पर क्यों? मैं उसकी माँ हूँ, मुझे ये किसी सज़ा दी जा रही है? (ममता, ऐसा भी होता है, पृ. 44). 
(2) द्वंद्व का पाठ 

  •  हादसों को अपनी जिंदगी की सार्थकता समझते हैं. इसी उलझन के दौर में जूझकर सिमटती रही दुर्गावती, ‘क्या करे और क्या न करे’ की कशमकश में खुद अपने आप से भी दूर होती रही. (वसीयत, ऐसा भी होता है, पृ. 72). 
(3) अकेलेपन का पाठ 

  • यह तन्हाई भी कितनी नीरस है जो इंसान को यादों की गहरी वादियों की अँधेरी गुफाओं में ले जाती है. (जियो और जीने दो, ऐसा भी होता है, पृ. 158)
देवी नागरानी की कथाभाषा में सूक्ति-गठन की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है. इन सूक्तियों का मूलस्वर भी मूल्यबोध से ही निःसृत है. उदाहरण के लिए: अपनेपन की रोशनी में गैरत का अँधेरा गुम हो गया (पृ. 19)/ संस्कृति आचरण की माँग करती है (पृ. 22)/ तकदीर तो पानी का एक रेला है जो बहता जाता है (पृ.24)/ नदी में उफान जब वेग पकड़ लेता है तो कौन बाँध को रोक पाता है? (पृ. 47)/ वक्त सबको सब कुछ सिखा देता है (पृ. 165)/ छत व मकान घर नहीं होते (पृ. 71) आदि. 

निष्कर्षतः, यह कहा जा सकता है कि प्रवासी कहानीकार देवी नागरानी की कहानियों में भारतीय संस्कार में रचे-पगे उदात्त मानवीय मूल्य अंतर्निहित हैं. समाज में व्याप्त अमानुषिक प्रवृत्ति के खिलाफ देवी नागरानी सरल संप्रेषणीय भाषा का व्यवहार करते हुए सुदृढ़ आवाज उठाती हैं, पाठकों को सचेत करती हैं तथा स्थितियों को सुधारने की गुहार लगाती हैं. उनकी कहानियों में विश्वबंधुत्व की भावना निहित है जिसकी जड़ें भारतीय अध्यात्म के तंतुओं से सृजित हैं. 

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