गुरुवार, 15 मार्च 2018

अनुवाद चिंतन पर एक परिपूर्ण दृष्टि


शर्मा, गोपाल (2017)/ अनुवाद : परंपरा और प्रयोग
नई दिल्ली : तक्षशिला
पृष्ठ : 423/ मूल्य : 900 


अनुवाद विज्ञान भाषाविज्ञान का एक अनुप्रयोग क्षेत्र है। इसकी संकल्पना अत्यंत व्यापक है। अनुवाद समीक्षा और अनुवाद मूल्यांकन जैसे क्षेत्रों का विस्तार हो रहा है। अनुवाद विज्ञान को पाठ विश्लेषण तथा संकेत विज्ञान से जोड़कर भी देखा जाता है। पहले से ही अंग्रेजी में अनुवाद विज्ञान से संबंधित अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। हिंदी में भी अनुवाद की सिद्धांत और व्यवहार से संबंधित अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं क्योंकि स्नातक और सनातकोत्तर स्तर पर अनेक विश्वविद्यालयों में अनुवाद को पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है। इन पुस्तकों में ज्यादातर अनुवाद की परिभाषा, स्वरूप, प्रक्रिया, क्षेत्र, प्रकार आदि से संबंधित सामग्री एवं तथ्यों में दुहराव दिखाई देता है। शोध ग्रंथों में भी प्रायः यही स्थिति है। लेकिन हाल ही में मुझे प्रो. गोपाल शर्मा की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘अनुवाद : परंपरा और प्रयोग’ (2017, नई दिल्ली : तक्षशिला) देखने और पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ तो ऐसा प्रतीत हुआ कि यही वह पुस्तक है जिसकी अनुवाद विज्ञान के अध्येताओं और हिंदी पाठकों को भी लंबे अरसे से तलाश थी। 

प्रो. गोपाल शर्मा इथियोपिया के अरबा मिंच विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और भाषाविज्ञान के प्रोफेसर हैं। हिंदी और अंग्रेजी दोनों में समान गति से आप शिक्षण, लेखन तथा अनुवाद कार्य करते हैं। आपकी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हैं – देरिदा : विखंडन की शब्दावली, समकालीन मीडिया लेखन, राजभाषा हिंदी : विचार और विश्लेषण, संप्रेषणपरक हिंदी भाषा शिक्षण, केंद्रीय हिंदी व्याकरण, अँधेरे में : देरिदा दृष्टि से एक जगत समीक्षा, एन आउटलाइन ऑफ जनरल लिंग्विस्टिक्स, एन इंटरोडक्शन टू लिटरेरी क्रिटिसिज़्म एंड थ्योरी, प्रेमचंद इन ट्रांस्लेशन, इंग्लिश इन इथोपिया : ईशूज एंड परस्पेक्टिव्ज, नेलसन मंडेला : दि अफ्रीकन गांधी, यूथ आइकन : नरेंद्र मोदी आदि। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद से आपने प्रसिद्ध समाजभाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह के सफल निर्देशन में ‘सैद्धांतिक-अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा : प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव का लेखन संदर्भ’ पर शोधकार्य किया है। सभा की मासिक पत्रिका ‘पूर्णकुंभ’ में वैनतेय शास्त्री के नाम से व्यंग्य लेखन भी किया है। 

‘अनुवाद : परंपरा और प्रयोग’ प्रो. गोपाल शर्मा की शोध दृष्टि और गहन चिंतन का सुपरिणाम है। अनुवाद अध्ययन और अध्यापन तथा शोध के लिए यह उपयोगी एवं महत्वपूर्ण पुस्तक है क्योंकि पहली बार अनुवाद अध्ययन का सर्वांगीण ढाँचा तथा अनुवाद परंपरा का भारतीय एवं पाश्चात्य परिदृश्य इस पुस्तक के माध्यम से पाठकों के समक्ष उपस्थित हुआ है। इस पुस्तक के ब्लर्ब पर यह उल्लेख किया गया है कि ‘यह पुस्तक अनुवाद अध्ययन की पाश्चात्य व भारतीय परंपराओं, सिद्धांतों और अनुवादवेत्ताओं के लेखन का अद्यतन और विस्तृत विवेचन करते हुए उसके अधुनातन प्रयोगात्मक पक्ष को विशेषतापूर्वक प्रस्तुत करती है।‘ एम.ए., एम.फिल., पीएच.डी., डिप्लोमा के छात्रों एवं शोधार्थियों के साथ-साथ प्राध्यापकों एवं शोध निर्देशकों को भी इस पुस्तक को आदि से अंत तक अक्षरशः पढ़ना चाहिए। 

‘अनुवाद : परंपरा और प्रयोग’ शीर्षक इस 423 पृष्ठों के महाकाय ग्रंथ में लेखक ने 14 शीर्षकों के अंतर्गत अनुवाद के वैश्विक परिदृश्य को समेटा है - (1) अनुवाद : महत्व, उद्देश्य, स्वरूप तथा क्षेत्र विस्तार, (2) अनुवाद : बहुस्तरीय व बहुआयामी परिभाषाएँ, (3) सफल अनुवादक की पहचान, (4) अनुवाद और भाषाविज्ञान, (5) अनुवाद की भारतीय परंपराएँ, (6) पाश्चात्य अनुवाद परंपरा, (7) प्रमुख अनुवाद चिंतक : भारतीय व पाश्चात्य, (8) समतुल्यता का सिद्धांत और अनुवाद, (9) उत्तर आधुनिकता और अनुवाद, (10) उत्तर उपनिवेशवाद और अनुवाद, (11) विखंडन और देरिदा की अनुवाद दृष्टि, (12) चित्रपट अनुवाद के विविध पक्ष, (13) मशीनी अनुवाद : उपलब्धियाँ, समस्याएँ और संभावनाएँ तथा (14) अनुवाद की नई सैद्धांतिकी। अंत में अनुवाद विज्ञान से संबंधित हिंदी और अंग्रेजी पुस्तकों की प्रामाणिक सूची भी सम्मिलित है जिसकी उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता। 

अनुवाद के महत्व को सिद्ध करते हुए गोपाल शर्मा कहते हैं कि ईसापूर्व भारतीय जीवन का पश्चिम से जो संबंध रहा वह केवल व्यापार का न होकर सांस्कृतिक आदान-प्रदान का था जिसमें अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। (पृ.13)। लेखक की मान्यता है कि भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना में अनुवाद सहायक था। अनुवाद केवल भाषा का अंतरण नहीं बल्कि सांस्कृतिक अंतरण है। इससे राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक तथा औद्योगिक प्रगति भी जुड़ी हुई है। लेखक यह प्रतिपादित करते हैं कि “दाराशिकोह के उपनिषदों के अनुवाद से लेकर आज तक की परंपरा के महत्व को समझते हुए यह कहने में गर्व होना चाहिए कि इस क्षेत्र में भारतीय योगदान नगण्य नहीं, अपितु अग्रगण्य है।“ (पृ.14)। 

अनुवाद विज्ञान के छात्र, शोधार्थी एवं शोध निर्देशक प्रायः कैटफोर्ड, नाइडा और पीटर न्यूमार्क तथा रवींद्रनाथ श्रीवात्सव, सुरेश कुमार, कैलाश चंद्र भाटिया, भोलानाथ तिवारी के ही इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। इन विद्वानों के द्वारा प्रतिपादित परिभाषाओं को तोते की तरह रटते हैं और काम चला लेते हैं। इन परिभाषाओं से न आगे जाते हैं और न ही जाने की कोशिश करते हैं। प्रो. गोपाल शर्मा ने अपनी गहन अध्ययन दृष्टि का परिचय देते हुए अनुवाद की बहुस्तरीय एवं बहुआयामी परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। चीनी भाषाविद लोंग जिंग (Long Jixing) के हवाले से वे यह स्पष्ट करते हैं कि परिभाषाओं को केवल कालक्रमानुसार न देखकर बहुस्तरीय स्वरूप के आधार पर देखना उचित होगा। भाषावैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अनुवाद की अनेक परिभाषाएँ विस्तृत विवेचन के साथ इस पुस्तक में सम्मिलित हैं। यह अनेकविद संकल्पना इसलिए भी आवश्यक प्रतीत होती है कि वर्तमान युग की कोई भी गतिविधि अनुवाद के बिना नहीं चलती। “अनुवाद की कोई भी थ्योरी कभी पूर्ण नहीं होती और न ही पूर्णरूपेण व्यर्थ।“ (पृ.283)। गोपाल शर्मा अनुवाद को ‘पौधारोपण’ (transplantation) मानते हैं (पृ.283) और कहते हैं कि जिस तरह धरती पर पौधा जमाने के लिए काट-छाँट और कतर-ब्योंत की आवश्यकता होती है उसी तरह अनुवाद को जमाने के लिए भी करना होगा। 

उत्तर आधुनिकता, उत्तर उपनिवेशवाद तथा विखंडन के बारे में आजकल बहुत कुछ लिखा जा रहा है पर संकल्पना अभी भी स्पष्ट नहीं हो सकी। देखा जाए तो संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद, फेमेनिज़्म आदि अनुवादों के माध्यम से ही सामने आए। इस संबंध में लेखक का कहना है कि “यदि सस्यूर और देरिदा को फ्रेंच से अंग्रेजी में अनुवाद के माध्यम से प्रस्तुत न किया जाता तो न संरचनावाद होता और न उत्तर संरचनावाद। न फ्रेंच फेमिनिज़्म से परिचय हो पाता, न जेंडर अध्ययन की नींव रखी जाती।“ (पृ.6)। ‘अनुवाद : परंपरा और प्रयोग’ में पहली बार उत्तर आधुनिकता तथा उत्तर उपनिवेशवाद से अनुवाद के संबंध को रेखांकित किया गया है। आज के परिप्रेक्ष्य में हिंदी ‘बाजार-दोस्त’ और ‘कंप्यूटर-दोस्त’ भाषा (शर्मा, ऋषभदेव [2015], हिंदी भाषा के बढ़ते कदम, नई दिल्ली : तक्षशिला, पृ. 183) बन चुकी है। ऐसी स्थिति में अनुवाद भी अब भाषाओं की सीमाओं से परे जाकर ‘मीडिया-अध्ययन’ और ‘मास कम्युनिकेशन’ तक पहुँच चुका है। (पृ.278)। लेखक ने यह स्मरण कराया है कि उनके बचपन में ‘रूसी से हिंदी में अनुवादित अनेक कृतियाँ नाम मात्र के मूल्य पर मिल जाया करती थीं।‘ (पृ.278)। मेरे पास आज भी रूसी से अंग्रेजी में और तेलुगु में अनूदित साहित्यिक कृतियाँ हैं जो रादुगा और प्रोग्रेस पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित हैं। उनमें से कुछ किताबों पर मात्र पाँच रुपए अंकित हैं और कुछ किताबों में तो मूल्य अंकित ही नहीं। 26 दिसंबर, 1991 से सोवियत संघ के विघटन के बाद रूसी साहित्य की वैसी उपलब्धता भी समाप्त हो गई है। आज अंग्रेजी का वर्चस्व है। अंग्रेजीतर भाषाओं के लेखक प्रायः यह समझते हैं कि यदि उनके साहित्य का अंग्रेजी में अनुवाद होता है तो उनका दर्जा भी बढ़ जाता है। जबकि प्रो. गोपाला शर्मा ने इसे एक उत्तर उपनिवेशी लक्षण माना है। 

उत्तर उपनिवेश काल में अनुवाद का महत्व बढ़ गया है। यदि उपनिवेशवादी ताकतों ने यह कहा कि ‘भारतीय भाषाओं में कुछ भी पठनीय व श्रेष्ठ नहीं है तो भारतीयों ने भी अपनी श्रेष्ठता का दावा करने के लिए अनुवाद को माध्यम बनाया।‘ (पृ.288)। अनुवाद कभी भी ‘वन वे ट्राफिक’ न होकर आदान-प्रदान होता है। (पृ.289)। भारत में 19वीं शती के प्रारंभ में जो ‘अनुवाद कार्य हुआ वह एक प्रकार से उपनिवेशी सोच का विस्तार है।‘ (पृ.290)। उल्लेखनीय है कि अनुवादकों को मार्ग सुझाने के साथ-साथ अनुवाद के क्षेत्र में निहित समस्याओं एवं सीमाओं का उल्लेख करते हुए विनय धारवाडकर ने अपने निबंध ‘ट्रांस्लेटिंग द मिलेनियम : इंडियन लिटरेचर इन ए ग्लोबल मार्केट’ में अनुवाद के लिए दस सूत्र निर्धारित किए हैं जिन पर इस पुस्तक में विचारोत्तेजक विमर्श सम्मिलित है। (पृ.297-298)। 

बाजार की ताकतों के सामने सब को झुकना ही पड़ रहा है। अनुवाद भी बाजार की ताकतों द्वारा संचालित है। प्रायः हम लोग यह पढ़ते आ रहे हैं कि अनुवादक वंचक होते हैं और अनुवाद दोयम दर्जे का कार्य। अनुवाद की लक्ष्य भाषा के अनुवादक की मातृभाषा से भिन्न होने पर यह खतरा और भी बढ़ जाता है। लेकिन प्रो. शर्मा याद दिलाते हैं कि देरिदा की दृष्टि से कोई भी अनुवाद दोयम नहीं होता। (पृ.311)। उनके अनुसार अनुवादक पाठक है और पाठक के साथ-साथ वह लेखक भी है और “यदि अनुवाद एक प्रकार का पठन कर्म है और या निर्वचन का प्रकार है तो वह दिए अर्थ का प्रतिस्थापन है।“ (पृ.312)। क्योंकि वे यह मानते हैं कि मूल अर्थ को खंडित करने के बावजूद एक नई टैक्स्ट या टैक्स्टों के नेटवर्क का निर्माण किया जा सकता है। (पृ.313)। ‘अनुवाद : परंपरा और प्रयोग’ में मशीनी अनुवाद, सबटाइटलिंग, फिल्मों के संवाद की प्रकृति, डबिंग, अनुवाद और जेंडर आदि अनेकानेक विषयों पर काफी विस्तार से चर्चा निहित है। 

पाठकों के लिए गोपाल शर्मा द्वारा रेखांकित कुछ तथ्यों को सूत्र रूप में यहाँ दिया जा रहा है – 

Ø अनुवाद के माध्यम से हीनता ग्रंथ की जड़ मिट सकती है। (पृ.14)। 

Ø अनुवाद तो एक ‘पाठ’ या ‘संवाद’ होता है, उसे जीवन देना, या संजीवनी देना अनुवाद का दायित्व है। (पृ.204)। 

Ø उत्तर उपनिवेशी काल में अनुवाद का महत्व यह कहकर अभिव्यक्त किया जाता है कि उपनिवेशवाद और अनुवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इनमें अटूट संबंध है। (पृ.288)। 

Ø उपनिवेशी सिद्धांती अनुवाद को एक ऐसा माध्यम मानते हैं जिनमें उपनिवेश को अनुवाद का रूपक मानकर देखना प्रश्नांकित किया जाता है। (पृ.289)। 

Ø अनुवादक मूल-कृतिकार का जरखरीद गुलाम नहीं वह भी एक सर्जक है। वह ऐसा सर्जक है जो मूलकृति को अन्य भाषा में ढालकर एक नई आकृति देता है। (पृ.289)। 

Ø अनुवाद किसी कृति के साथ किया जाने वाला आत्मीय संवाद या संलाप है, प्रतिक्रिया है जिसमें अनुवादक स्वयंभू, स्वतंत्र, निर्भीक एवं सहृदय पाठक होता है। (पृ.289)। 

Ø अनुवाद पर प्रतिबंध की कोई चेष्टा अलाभप्रद होगी। बेहतर होगा की कोई मध्यम मार्ग हो, समस्त परिक्षेत्र का आकलन व मूल्यांकन हो और जिसे भाभा ‘in-between space’ कहते हैं तथा जिसमें अनुवाद के साथ संस्कृति का जुड़ाव भी होता है वह रहे। (पृ.289)। 

Ø हर कृति का अनुवाद मूलकृति को परिष्कृत, परिमार्जित व परिवर्धित ही नहीं करता, वह नए अर्थ का निर्धारण भी करता है। (पृ.291)। 

Ø सांस्कृतिक और भाषाई विभाजन अनुवाद के मार्ग में बाधा है। (पृ.294)। 

Ø कंप्यूटर के पास स्मृति तो होती है, किंतु मानवीय मस्तिष्क की विचार प्रक्रिया को वह नहीं पा सकता। अतः अनुवाद में निहित सर्जनात्मकता अपना पुनःसर्जन की प्रक्रिया में कोई मशीन मानवीय मस्तिष्क का स्थान नहीं ले सकती। केवल सीधी-सादी सूचनाओं अथवा आँकड़ों का भाषांतरण तो यह असीम क्षमता से कर सकती है। (पृ.391)। 

Ø एक गंभीर (मूल) स्रोत टैक्स्ट सदैव पवित्र नहीं होती, और जब कोई टैक्स्ट किन्हीं पाठकों के लिए लिखी जाती है तो उन पाठकों को उससे भटकना नहीं चाहिए। (पृ.414)। 

अंत में इस ग्रंथ की उपादेयता के संदर्भ में यह तथ्य एक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है कि इसमें विद्वान लेखक ने देश विदेश के जिन अनेक अनुवादशास्त्रियों के सिद्धांतों और मत-मतांतरों पर विमर्श प्रस्तुत किया है उनमें रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, भोलानाथ तिवारी, सतीश कुमार रोहरा, कैलाश चंद्र भाटिया, एन.ई. विश्वनाथ अय्यर, सत्यव्रत, गार्गी गुप्त, श्रीपाद रघुनाथ जोशी, दिलीप सिंह, नगेंद्र, अज्ञेय, कृष्ण कुमार गोस्वामी, कैटफोर्ड, नाइडा, पीटर न्यूमार्क, एंड्रे लेफेवरे, पेट्रस डेनियलस हूटिअस, सुज़ेन बेसनेट, एल्स वियरा, गेंटजलेर, वॉल्टर बेंजामिन, देरिडा, शैरी साइमन, एमिली एप्टर, गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक्, होमी भाभा जैसे अनेक महत्वपूर्ण नाम शामिल हैं। साथ ही न्यायसूत्र, मीमांसा, पाणिनि, शब्द रत्नावली, शब्द कल्पद्रुम की परंपरागत प्राचीन परिभाषाएँ भी सम्मिलित हैं। निष्कर्षतः, अनुवाद चिंतन या अनुवाद अध्ययन को परिपूर्णता प्रदान करने की दृष्टि से यह विमर्श अत्यंत श्लाघनीय है।